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नचनिये / आरसी चौहान

मँच पर घुँघरूओं की छम–छम से
आगाज कराते
पर्दे के पीछे खड़े नचनिये
कौतूहल का विषय होते
परदा हटने तक

संचालक पुकारता एक–एक नाम
खड़ी हैं मंच पर बाएँ से क्रमशः
सुनैना, जूली, बिजली, रानी
साँस रोक देने वाली धड़कनें
जैसे इकठ्ठा हो गई हैं मँच पर

परदा हटते ही सीटियों
तालियों की गड़गड़ाहट
आसमान छेद देने वाली लाठियाँ
लहराने लगती थीं हवा में
ठुमकते किसी लोक धुन पर कि
फरफरा उठते उनके लहंगे
लजा उठती दिशाएँ
सिसकियां भरता पूरा बुर्जुआ

एक बार तो
हद ही हो गई रे भाई!
एक ने केवल
इतना ही गाया था कि
‘बहे पुरवइया रे सखियाँ
देहिया टूटे पोरे पोर।‘
कि तन गई थीं लाठियाँ
आसमान में बन्दूक की तरह
लहरा उठीं थी भुजाएँ तीर के माफ़िक
मँच पर चढ़ आए थे ठाकुरों ब्राह्मनों
के कुछ लौण्डे

भाई रे! अगर पुलिस न होती तो
बिछ जानी थी एकाध लाश
हम तो बूझ ही नहीं पाए कि
इन लौण्डों की नस–नस में
बहता है रक्त
कि गरम पिघला लोहा

अब लोक धुनों पर
ठुमकने वाले नचनिये
कहाँ बिलाने से लगे हैं
जिन्होंने अपनी आवाज़ से
नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया लोकगीत
और जीवित रखा लोक कवियों को

इन्हें किसी लुप्त होते
प्राणियों की तरह
नहीं दर्ज किया गया
‘रेड डाटा बुक‘ में
जबकि -–
हमारे इतिहास का
यह एक कड़वा सच
कि एक परम्परा
तोड़ रही है दम
घायल हिरन की माफ़िक

और हम
बजा रहे तालियाँ बेसुध
जैसे मना रहे हों
कोई युद्ध जीतने का
विजयोत्सव।