नज़दीक थे बहुत जो, सब दूर हो गए हैं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
नज़दीक थे बहुत जो, सब दूर हो गए हैं
सपने सभी सुनहरे काफूर हो गए है
इज़हारे-ग़म करें तो, इल्ज़ाम सिर पे आते
सीने को होंठ हरदम मजबूर हो गए हैं
मरहम लगा भी लें तो क्या फ़ायदा है यारो
सीने के ज़ख़्म अब तो नासूर हो गए हैं
मंुह पर बात है मीठी, छुप-छुप के घात करते
ये दोस्तों के कैसे दस्तूर हो गए हैं
पाकर सज़ा-ए-सूली, बेदर्द दिल के हाथों
अरमान अब हमारे मंसूर हो गए हैं
चन्दन की गंध जिनकी हर सांस में बसी थी
वो आज हमको जलते तन्दूर हो गए हैं
पा मौसमे-बहारां का दूर से इशारा
उजड़े हुए चमन भी मग़रूर हो गए हैं
जब से चली चमन में जुल्मो-सितम की आंधी
इन्साफ़ के सभी गुल बेनूर हो गए हैं
आख़िर सहें तो कब तक, चुप भी रहें तो कब तक
पैमाने सब्र के सब भरपूर हो गए हैं
ईज़ाद हैं ग़मों की, यूं ऐ ‘मधुप’ तुम्हारे
शेरो-सुख़न जहां में मशहूर हो गए हैं