भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें / शमीम अब्बास
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:55, 9 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमीम अब्बास }} {{KKCatGhazal}} <poem> नज़र समेटे...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें
जो उस पे था अब तलक हमें ए‘तिबार रख दें
बस एक ख़्वाहिश मदार थी अपनी ज़िंदगी का
किसी के हाथामें में अपना दार-ओ-मदार रख दें
तुझे जकड़ ले कभी सलीक़ा यही नहीं है
है जी में सब नोच कर निगाहों के तार रख दें
बड़ी ही नरमी से उस की आँखें मुसिर हुई थीं
हम उस के दामन में अपना सारा ग़ुबार रख दें
कभी मिरी ज़िद जो ले मुझ ही को ले के दम ले
फिर उस के आगे ज़माने भर को हज़ार रख दें