"नज्म बहुत आसान थी पहले / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली | |रचनाकार=निदा फ़ाज़ली | ||
+ | |अनुवादक= | ||
+ | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatNazm}} | |
− | नज्म बहुत आसान थी पहले | + | <poem> |
− | घर के आगे | + | नज्म बहुत आसान थी पहले |
− | पीपल की शाखों से उछल के | + | घर के आगे |
− | आते-जाते बच्चों के बस्तों से | + | पीपल की शाखों से उछल के |
− | निकल के | + | आते-जाते बच्चों के बस्तों से |
− | रंग बरंगी | + | निकल के |
− | चिडयों के चेहकार में ढल के | + | रंग बरंगी |
− | नज्म मेरे घर जब आती थी | + | चिडयों के चेहकार में ढल के |
− | मेरे कलम से जल्दी-जल्दी | + | नज्म मेरे घर जब आती थी |
− | खुद को पूरा लिख जाती थी, | + | मेरे कलम से जल्दी-जल्दी |
− | अब सब मंजर बदल चुके हैं | + | खुद को पूरा लिख जाती थी, |
− | छोटे-छोटे चौराहों से | + | अब सब मंजर बदल चुके हैं |
− | चौडे रस्ते निकल चुके हैं | + | छोटे-छोटे चौराहों से |
− | बडे-बडे बाजार | + | चौडे रस्ते निकल चुके हैं |
− | पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं | + | बडे-बडे बाजार |
− | नज्म से मुझ तक | + | पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं |
− | अब मीलों लंबी दूरी है | + | नज्म से मुझ तक |
− | इन मीलों लंबी दूरी में | + | अब मीलों लंबी दूरी है |
− | कहीं अचानक बम फटते हैं | + | इन मीलों लंबी दूरी में |
− | कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं | + | कहीं अचानक बम फटते हैं |
− | मजहब और सियासत मिलकर | + | कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं |
− | नये-नये नारे रटते हैं | + | मजहब और सियासत मिलकर |
− | बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर | + | नये-नये नारे रटते हैं |
− | नज्म मेरे घर जब आती है | + | बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर |
− | इतनी ज्यादा थक जाती है | + | नज्म मेरे घर जब आती है |
− | मेरी लिखने की टेबिल पर | + | इतनी ज्यादा थक जाती है |
− | खाली कागज को खाली ही छोड के | + | मेरी लिखने की टेबिल पर |
− | रुख्ासत हो जाती है | + | खाली कागज को खाली ही छोड के |
− | और किसी फुटपाथ पे जाकर | + | रुख्ासत हो जाती है |
− | शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर | + | और किसी फुटपाथ पे जाकर |
− | आँसू बन कर | + | शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर |
+ | आँसू बन कर | ||
सो जाती है। | सो जाती है। | ||
+ | </poem> |
22:33, 13 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण
नज्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाखों से उछल के
आते-जाते बच्चों के बस्तों से
निकल के
रंग बरंगी
चिडयों के चेहकार में ढल के
नज्म मेरे घर जब आती थी
मेरे कलम से जल्दी-जल्दी
खुद को पूरा लिख जाती थी,
अब सब मंजर बदल चुके हैं
छोटे-छोटे चौराहों से
चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार
पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक
अब मीलों लंबी दूरी है
इन मीलों लंबी दूरी में
कहीं अचानक बम फटते हैं
कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं
मजहब और सियासत मिलकर
नये-नये नारे रटते हैं
बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर
नज्म मेरे घर जब आती है
इतनी ज्यादा थक जाती है
मेरी लिखने की टेबिल पर
खाली कागज को खाली ही छोड के
रुख्ासत हो जाती है
और किसी फुटपाथ पे जाकर
शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर
आँसू बन कर
सो जाती है।