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नदिया सी कोई / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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रात चाँदनी फिर आई।
मेरी पिछली यात्राओं के
कुछ भूले चित्र-
उठा लाई।
मैं मुड़ा अनेक घुमाओं पर,
राहें हावी थीं पावों पर
फिर खनका आज यहाँ कंगन,
निर्व्याख्या हैं मन के कंपन;
सन्दर्भों की कथा,
काँपते तरु-पातों ने दुहराई।

सुन पड़ते शब्द बहावों के,
दो पाल दिख रहे नावों के;
धारा में बह-बह कर आते,
टूटे रथ किन्हीं अभावों के;
मेरी बाहें
तट-सी फैलीं
नदिया-सी कोई हहराई।