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नदी के हस्ताक्षर / कविता भट्ट

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नदी भूल गई थी कि
साथ रह कर भी जब किनारा
उसकी शान्ति को न समझा
तो उसकी लहरों की ध्वनि
वह क्या समझेगा?
आज अचानक नदी बोल पड़ी
ओ किनारे !यदि तुम क्रूर हो
समय के जैसे
तो मैं भी प्रबल जलधारा हूँ
अपने वेग से तुम्हारी सीने पर
अमिट हस्ताक्षर करूँगी
कुछ भी हो जाए; हठ है मेरी कि
इन चट्टानों पर गहरी 'नदी' लिखूँगी।
किनारे को लगा कि
नदी की ध्वनि से
उसका अस्तित्व संकट में है।
इसलिए उसने नदी को बाँधकर समझा दिया
कि वह चुप ही रहे तो अच्छा है;
किन्तु जिसका अस्तित्व वेग से ही हो
वह चुप कैसे रह सकती थी?
आज फिर नदी की अंतर्ध्वनि
लहरों की तीव्र ध्वनि में बदल गई
और उसने फिर से उसकी वेगवती धाराओं ने
किनारे की चट्टानों को काटकर
'नदी' लिखना आरम्भ कर दिया
मैं देख सकती हूँ कि
नदी के हस्ताक्षर गहरे हो रहे हैं;
क्योंकि उसने विकटतम परिस्थिति में भी
बहने की सौगन्ध ले ली है,
इसीलिए किनारा स्तब्ध है।
वह अपने छोर संकुचित कर रहा है
लहरें और भी अधिक तीव्र ध्वनि से
'नदी' लिख रही हैं, फिर भी
नदी संस्कार नहीं भूली
किनारे के साथ ही बह रही है।
उसके हस्ताक्षर और संस्कारों को
एक दिन किनारा स्वयं ही स्वीकार करेगा।
निश्चित रूप से क्रूर समय भी
'नदी' के अस्तित्व को प्रमाणित करेगा।
अंत में इतना कहना है कि
नदी की चुप्पी आपदा का संकेत है
इसलिए, ओ किनारे! नदी को निर्बाध बहने दो।
ताकि तुम भी सुरक्षित रह सको। .