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नदी / शंभुनाथ सिंह

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        एक मीनार उठती रही
        एक मीनार ढहती रही
        अनरुकी अनथकी सामने
        यह नदी किन्तु बहती रही

पर्वतों में उतरती हुई
घाटियाँ पार करती हुई,
तोड़ती पत्थरों के क़िले
बीहड़ों से गुज़रती हुई,

        चाँद से बात करती रही
        सूर्य के घात सहती रही ।

धूप में झलमलती हुई
छाँव में गुनगुनाती हुई,
पास सबको बुलाती हुई
प्यास सबकी बुझाती हुई,

        ताप सबका मिटाती हुई
        रेत में आप दहती रही ।

बारिशों में उबलती हुई
बस्तियों को निगलती हुई,
छोड़ती राह में केंचुलें
साँप की चाल चलती हुई ।

        हर तरफ़ तोड़ती सरहदें,
        सरहदों बीच रहती रही ।

सभ्यताएँ बनाती हुई
सभ्यताएँ मिटाती हुई,
इस किनारे रुकी ज़िंदगी
उस किनारे लगाती हुई ।

        कान में हर सदी के नदी
        अनकही बात कहती रही ।