भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नबूद ओ बूद के मंज़र बनाता रहता हूँ / कामी शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नबूद ओ बूद के मंज़र बनाता रहता हूँ
मैं ज़र्द आग में ख़ुद को जलाता रहता हूँ

तिरे जमाल का सदक़ा ये आतिश-ए-रौशन
चराग़ आब-ए-रवाँ पर बहाता रहता हूँ

दुआएँ उस के लिए हैं सदाएँ उस के लिए
मैं जिस की राह में बादल बिछाता रहता हूँ

उदास धुन है कोई उन ग़ज़ाल आँखों में
दिए के साथ जिसे गुनगुनाता रहता हूँ

अजीब सुस्त-रवी से ये दिन गुज़ते हैं
मैं आसमान पे शामें बनाता रहता हूँ

मैं उड़ाता रहता हूँ नीले समुंदरों में कहीं
सो तितलियों के लिए ख़्वाब लाता रहता हूँ

ये मुझ में फैल रहा है जो इजि़्तराब-ए-शदीद
तो फिर ये तय है उसे याद आता रहता हूँ