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नमस्कार / जयशंकर प्रसाद

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जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है
जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है
जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे
जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर ओ’ तारे
उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्पस्थ को
नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्‍व-गृहस्थ को