भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatNavgeet}}
 
{{KKCatNavgeet}}
 
<Poem>
 
<Poem>
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे,खेली होली !
+
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !
 
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
 
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप ,कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
+
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
                 मली मुख-चुम्बन-रोली।
+
                 मली मुख-चुम्बन-रोली ।
  
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
+
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर -दशन अनबोली-
+
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-
                       कली -सी काँटे की तोली।
+
                       कली-सी काँटे की तोली ।
  
 
मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
 
मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक,मुँद गये पलक-दल,श्रम-सुख की हद हो ली-
+
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-
                           बनी रति की छवि भोली।
+
                           बनी रति की छवि भोली ।
  
 
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
 
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली
+
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
                       रही यह एक ठठोली।
+
                       रही यह एक ठिठोली ।
  
 
'''निराला जी की यह कविता 'जागरण', पाक्षिक, काशी, 22 मार्च 1932 को 'होली' शीर्षक से छपी थी ।'''
 
'''निराला जी की यह कविता 'जागरण', पाक्षिक, काशी, 22 मार्च 1932 को 'होली' शीर्षक से छपी थी ।'''
 
</poem>
 
</poem>

12:40, 20 मार्च 2011 के समय का अवतरण

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
                मली मुख-चुम्बन-रोली ।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-
                      कली-सी काँटे की तोली ।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-
                          बनी रति की छवि भोली ।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
                      रही यह एक ठिठोली ।

निराला जी की यह कविता 'जागरण', पाक्षिक, काशी, 22 मार्च 1932 को 'होली' शीर्षक से छपी थी ।