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नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे,खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप ,कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
                मली मुख-चुम्बन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर -दशन अनबोली-
                      कली -सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक,मुँद गये पलक-दल,श्रम-सुख की हद हो ली-
                          बनी रति की छवि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली
                      रही यह एक ठठोली।

निराला जी की यह कविता 'जागरण', पाक्षिक, काशी, 22 मार्च 1932 को 'होली' शीर्षक से छपी थी ।