Last modified on 30 नवम्बर 2021, at 23:33

नयनो की धरती / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:33, 30 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जीवन सरिता रेतीली है।
किन्तु चाँदनी चमकीली है।

आग नहीं जलती चूल्हे में,
किन्तु पेट में गर्वीली है।

बरस उठे यादों के बादल,
नयनों की धरती गीली है।

सपनों के सोपन ढह गये,
मुखडों की रंगत पीली है।

बंजर सा अपनत्व हो गया,
छाँह स्नेह की शर्मीली है।

मौन हो गया है युग-उपवन,
कली-कली लगती कीली है।

घर-घर में है आग लगती
जिहुआ माचिस की तीली है।