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नयन अबोले / श्रीकान्त जोशी

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इक पल मूँदे इक पल खोले
बोल गए दो नयन अबोले।

बात सहज थी अरथ अबूझे
वह पागल जो इनसे जूझे
जिसका मन हो फूल सुबह का
वह सब जाने उसको सूझे
इक पल बैठे युग दे बैठे
हम ऐसे अनजाने भोले।

जल गहरा था तट बहरा था
फिर भी मन यह रुका न रोके
जिस पर कभी नहीं पहरा था
मगन हुआ वह बंदी होके
दो नयनों पर जनम अनगिने
मिली तराज़ू हमने तौले।

इक पल मूँदे इक पल खोले
बोल गए दो नयन अबोले।