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नरेन्द्र देव वर्मा / परिचय

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"'संंक्षिप्त परिचय"'

इन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य का उद्विकास में रविशंकर विश्वविद्यालय से पीएचडी की एवं छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य में कालक्रमानुसार विकास का महान कार्य किया। ये कवि नाटककार, उपन्यासकार, कथाकार, समीक्षक एवं भाषाविद थे। इनका छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह 'अपूर्वा' है। इसके अलावा सुबह की तलाश (हिन्दी उपन्यास) , छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास, हिन्दी स्वछंदवाद प्रयोगवादी, नयी कविता सिद्धांत एवं सृजन, हिन्दी नव स्वछंदवाद आदि प्रकाशित ग्रंथ हैं। इनका 'मोला गुरु बनई लेते' छत्तीसगढ़ प्रहसन अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।

"'विस्तृत परिचय"'
 (1)

4 नवंबर 1939 से 8 सितंबर 1979 को बीच केवल चालीस वर्ष में, अपनी सृजनधर्मिता दिखाने वाले डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, वस्तुत: छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे। हिन्दी साहित्य के गहन अध्येता होने के साथ ही, कुशल वक्ता, गंभीर प्राध्यापक, भाषाविद् तथा संगीत मर्मज्ञ गायक भी थे। उनके बड़े भाई ब्रम्हलीन स्वामी आत्मानंद जी का प्रभाव उनके जीवन पर बहुत अधिक पड़ा था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं दीर्घायु प्राप्त यशस्वी शिक्षक पिता स्व। धनीराम वर्मा के पाँच यशस्वी पुत्रों में डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा एकमात्र विवाहित और गृहस्थ थे। तीन पुत्र रामकृष्ण मिशन में समर्पित सन्यासी एवं एक पुत्र अविवाहित रहकर पं। रविशंकर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक है तथा स्वामी आत्मानंद जी के 'स्वप्न केन्द्र' विवेकानंद विद्यापीठ के संचालक है। इस प्रकार डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का जीवन विवेकानंद भावधारा से अनुप्राणित उत्तम संस्कारों का जीवन था-जहाँ छत्तीसगढ़ी संस्कृति की लोक भावधारा भी कल-कल निनाद करती हुई बहती थी।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के जीवन का दूसरा पक्ष लोककला से इस तरह जुड़ा था कि छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के यशस्वी और अमर प्रस्तोता स्व। महासिंह चंद्राकर के रात भर चलने वाले लोकनाट्य 'सोनहा बिहान' के प्रभावशाली उद्घोषक हुआ करते थे। उनका स्वर, श्रोताओं और दर्शकों को अपने सम्मोहन में बांध लेता था। जब वह स्वर अकस्मात् बंद हुआ तो, उन्हीं की पंक्ति आकाश व धरती पर मानों गूँजने लगी–

' न जमो हर लेवना के उफान रे टलन जाही।
दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही॥'

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा की अस्मिता के प्रतीक थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा एव व्याकरण का ग्रंथ लिखा-छत्तीसगढ़ी का उद्विकास। छत्तीसगढ़ी अनेक छत्तीसगढ़ी कहानियाँ कथाकथन शैली में प्रकाशित हुइंर् (सन् 1962 से 65 के बीच) हिन्दी में 3सुबह की तलाश4 उपन्यास, 'अपूर्वा' काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। उन्होंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया-मोंगरा, श्री माँ की वाणी, श्री कृष्ण की वाणी, श्री राम की वाणी, बुद्ध की वाणी, ईसा मसीह की वाणी, मोहम्मद पैंगबर की वाणी।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने यद्यपि गृहस्थ जीवन व्यतीत किया, फिर भी उनके अंतस् में विवेकानंद भाव धारा एवं रामकृष्ण मिशन का गहन प्रभाव था, यही कारण है कि दर्शन की गहराइयों में डूबकर काव्य-सृजन किया करते थे। 3छत्तीसगढ़ महिमा4 कविता में छत्तीसगढ़ का समूचा भौगोलिक परिदृश्य आँखों में झूलने लगता है-

' सतपूड़ा सेंदूर लगावय।
दंडकारन, महउर रचावय॥
मेकर डोंगर करधन सोहय।
सुर मुनि जन सबके मन मोहय॥
रामगिरि के सुपार पहड़िया।
कालिदास के हावय कुटिया॥
लहुकत लगत असाढ़ बिजुरिया।
बादर छावय घंडरा करिया।
परदेशी ला सुधे देवावय।
घर कोती मन ला चुचुवावय॥
भेजय बादर करा संदेसा।
झन कर बपुरी अबड़ कलेसा॥
बारा महिना जमे पहाड़ी।
नवा असाढ़ लहुट के आही।
मेघदूत के धाम हे, इही रमाएन गांव।
अइसन पबरित भूम के, छत्तीसगढ़ हे नांव॥'

उक्त लंबी कविता में महानदी, इन्द्रावती, पैरी, शिवनाथ, हसदो, अरपो, जोंक नदियों के साथ-साथ सिहावा पर्वत बस्तर के मुड़िया माड़िया इन सबका मोहक और विस्तृत वर्णन भी है। उनके ह्रदय में छत्तीसगढ़ के प्रति अपार प्रेम का सागर लहराता है। शब्दों की उताल तंरगे उठती थी। मातृभूपि के प्रति प्रेम की लहर फिर दर्शन की गुफा में लौटने लगती और वे अंदर से दार्शनिक की तरह गंभीर स्वर में फिर गाने लगते, मानों फकीर बंजारा धरती पर, खुले आकाश में घूम रहा हौ और संसार के कर्म व्यापार को देखकर चेतावानी दे रहा हो-

दुनिया हर रेती के महाल रे, ओदर जाही।
दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही॥
आनी बानी के हावय खेलवना, खेलय जम्मो खेल।
रकम रकम के बिंदिया फुंदरा, नून बिसा लव तेल
दुनिया हर धुंगिया के पहार रे, उझर जाही।
दुनिया अठवारी बजार रे, उसल जाही॥

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को स्मरण करना, छत्तीसगढ़ी भाषा की पुख्ता नींव को स्मरण करना है। वे छत्तीसगढ़ी लोककला के प्रेमी, लोक संस्कृति के गायक और छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य की परंपरा को समृद्ध करने वाले महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर थे।

 (2)

मुंशी प्रेमचंद और रेणु के कथा संसार से जुड़कर हर संवेदनशील छत्तीसगढ़ी पाठक को यह महसूस होता था कि छत्तीसगढ़ में बैठकर कलम चलाने वालों के साहित्य में हमारा अंचल क्यों नहीं झांकता। छत्तीसगढ़ी में लिखित साहित्य में तो छत्तीसगढ़ अंचल पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित होता है लेकिन हिन्दी में नहीं। इस बड़ी कमी को कोई छत्तीसगढ़ महतारी का सपूत ही पूरा कर सकता था। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में तीस वर्ष पूर्व जब सुबह की तलाश उपन्यास जब धारावाहिक रूप से छपा तब हिन्दी के पाठकों को लगा कि छत्तीसगढ़ में भी रेणु की परंपरा का पोषण अब शुरू हो चुका है।

'सुबह की तलाश' एक विशिष्ट उपन्यास है जिस पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई. छत्तीसगढ़ी लेखकों पर यूं भी देश के प्रतिष्ठित समीक्षक केवल चलते-चलते कुछ टिप्पणी भर करने की कृपा करते हैं। जिन्हें छत्तीसगढ़ की विशेषताओं की जानकारी है वे राष्ट्रीय स्तर के समीक्षक नहीं हैं और जो राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी समीक्षा दृष्टि के लिए जाने जाते रहे हैं उन्हें छत्तीसगढ़ की आंतरिक विलक्षणता कभी उल्लेखनीय नहीं लगी। संभवत: वे इसे सही ढंग से जान भी नहीं पाये। फिर भी डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने अपनी ताकत का अहसास करवाया। वे हार कर चुप बैठ जाने वाले छत्तीसगढ़ी नहीं थे। राह बनाने के लिए प्रतिबद्ध माटीपुत्र थे। उन्होंने महसूस किया कि सुबह की तलाश को कुछ लोगों ने ही पढ़ा। लेकिन उसकी अंतर्वस्तु ऐसी है कि कम से कम समग्र छत्तीसगढ़ उसे जाने समझे।

जब कोई महान कार्य सम्पन्न होने वाला होता है तो संयोग स्वयं ही निर्मित होते चले जाते हैं। कवि मुकुंद कौशल के माध्यम से महासिंह चंद्राकर और डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का जो परिचय हुआ उस परिचय ने वर्मा जी की योजना को धरती पर उतार लाने की संपूर्ण योजना ही बना दी। कला के पारखी दाऊ महासिंह चंद्राकर ने तुरंत जान लिया कि छत्तीसगढ़ की बिगड़ी इसी तरह बनेगी। शोषण और अत्याचार की कहानी जन-जन तक पहुंचेगी। तब लोग अपनी बेड़ियों को तोड़ने के लिए आतुर होंगे।

इस तरह सोनहा बिहान का स्वरूप बना। दाऊ महासिंह चंद्राकर स्वयं एक सिद्ध कलाकार थे। अब तक दाऊ रामचंद्र देशमुख का जागृति अभियान परवान चढ़ चुका था। वे छत्तीसगढ़ में अपनी प्रस्तुति 'चंदैनी गोंदा' के कारण एक वातावरण बना चुके थे। ऐसे समय में डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा 'सोनहा बिहान' का सपना लेकर दुर्ग आये। सोनहा बिहान ने छत्तीसगढ़ में मंचीय अभियान का नया इतिहास रच दिया। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा जैसे विलक्षण मंच संचालक पहली बार लोकमंच में अवतरित हुए. वे कथाकार कवि और दार्शनिक तो थे ही, छत्तीसगढ़ के ख्याति प्राप्त भाषा-विज्ञानी भी थे। उन्होंने अपने गीतों की स्वरलिपि भी तैयार की।

' अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार,
इनदरावती हा पखारे तोर पइयाँ,
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मइयाँ ।'

इस गीत के अमर रचयिता डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ की वंदना के कई अविस्मर्णीय गीत लिखे।

स्वामी आत्मानंद ने अपने अनुज डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के बारे में मरणोपरांत लेख लिखा है। वे लिखते हैं कि सोनहा बिहान की चतुर्दिक ख्याति की खबरें सुनकर वे भी इसकी प्रस्तुति देखने के लिए लालायित हो उठे 1978 के अंत में महासमुंद में एक प्रदर्शन तय हुआ। स्वामी जी को डाक्टर साहब ने बताया कि आप चाहें तो उस दिन प्रदर्शन देख सकतें हैं। महासमुंद में विराट दर्शक वृंद को देखकर स्वामी जी रोमांचित हो उठे। उनके भक्तों ने उन्हें विशिष्ट स्थान में बिठाने का प्रयत्न किया लेकिन डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने स्वामी जी को दर्शकों के बीच जमीन पर बैठकर देखने का आग्रह किया। स्वामी जी उनकी इस व्यवस्था से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस घटना को याद करते हुए लिखा है–'नरेन्द्र तुम सचमुच मेरे अनुज थे।'

नरेन्द्र देव वर्मा मैट्रिक तक सामान्य विद्यार्थी थे। इन्टर से उनकी उन्नति प्रारंभ हुई. बी.ए. में उनकी तेजस्विता परवान चढ़ी। आगे वे लगातार श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होते चले गए. वे सागर विश्वविद्यालय में आचार्य नंददुलारे बाजपेयी जी के विद्यार्थी थे। 26 अक्टूबर 1961 को पंड़ित जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा यूथ फेस्टिवल आयोजित किया गया। तालकटोरा स्टेडियम में अखिल भारतीय वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। विषय था 'शक्तिशाली अणु शस्त्रों से विश्व शांति संभव है।' डॉ. नरेन्द्र देव सागर विश्वविद्यालय से श्रेष्ठ वक्ता के रूप में पक्ष में बोलने गए थे। उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के डॉ. विष्णु प्रसाद पाण्डे को पराजित कर प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। बाद में डॉ. विष्णुप्रसाद पाण्डे भी शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग में सहायक प्राध्यापक होकर आये। उनसे डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की मित्रता जीवन भर रही। डॉ. पाण्डे ने लिखा है कि-कि विजेता विद्यार्थियों को पंड़ित जवाहर लाल नेहरू से मिलवाया गया। फोटो सेशन के दौरान डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने कुछ कहा तो पंड़ित जवाहर लाल नेहरू प्रभावित हो गये। वे अलग ले जाकर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा से कुछ देर बात करते रहे।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की शादी मात्र साढ़े 18 वर्ष की उम्र में हो गई. धनीराम जी वर्मा के अत्यंत प्रतिभा संपन्न ज्येष्ठ पुत्र थे तुलेन्द्र। यही तुलेन्द्र आगे चलकर छत्तीसगढ़ के विवेकानंद स्वामी आत्मानंद कहलाये। वे रामकृष्ण भावधारा से जिस तरह क्रमश: जुड़े उसे धनीराम जी जान चुके थे। शनै: शनै: उन पर रामकृष्ण भावधारा का प्रभाव बढ़ा और वे सन्यासी हो गए. उसके बाद क्रमश: दूसरे क्रम के पुत्र देवेन्द्र भी बड़े भाई से प्रभावित होते दिखे। इसीलिए देवेन्द्र का ब्याह सुनिश्चित हुआ तब उसके बाद के क्रम के भाई नरेन्द्र मात्र साढ़े अठारह वर्ष के थे। धनीराम जी ने दोनों को विवाह के बंधन में बांध कर गृहस्थ बनाने का संकल्प ले लिया। लेकिन ऐन बारात जाने के पहले देवेन्द्र महाराज तो अंर्तध्यान हो गये, सीधे साधे नरेन्द्र के पांव में विवाह की बेड़ी पड़ गई. नरेन्द्र देव वर्मा ने कई बार लिखा है कि बड़े भैया का आशीष अगर उन्हें भी मिला होता तो वे भी विवाह बंधन से मुक्त होकर उन्हीं की तरह सन्यासी जीवन बिताते। स्वामी आत्मानंद ने उन्हें समझाया भी कि शायद ईश्वर उन्हें विवाहित जीवन बिताते हुए ही सेवा का दायित्व देना चाहते थे। इसलिए विचलित हुए बगैर ईश्वरीय इच्छा को मानकर कार्य करना है।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को सान्त्वना देने के लिए स्वामी आत्मानंद ने जो कुछ कहा उसकी सत्यता का अहसास हम लोग अब कर रहे हैं। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की ज्येष्ठ पुत्री मुक्ति का ब्याह भूपेश बघेल से हुआ। यह एक दुर्लभ संयोग सिद्ध हुआ। भूपेश बघेल को स्वामी आत्मानंद ने ही चुना। तब भूपेश अपने ट्रेक्टर में पशुचारा आदि लेकर विवेकानंद आश्रम रायपुर जाते थे। भूपेश बघेल आज के तेज तर्रार नेता माने जाते हैं।

असंतुष्ट और कुमार्गी व्यक्ति को गले से अधिक दिनों तक लगाये रहना बघेलों को रास नहीं आता।

मैंने भूपेश बघेल से जब इस विशेषता के संदर्भ में पूछा तो उसने कहा कि मैथिलीशरण जी गुप्त की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए ...

' स्वयं विघ्न बाधाओं को हम नहीं बुलाने जाते हैं,
किन्तु अगर वे आयें तो हम कभी नहीं घबराते हैं, '

तो स्वामी जी ने पढ़े लिखे कृषि कार्य में दक्ष दाऊ घराने के एक सामान्य युवक को चुना जो आज छत्तीसगढ़ में प्रतिपक्ष के उपनेता भूपेश बघेल कहलाते हैं। वे चढ़ती जवानी में ही मध्यप्रदेश में मंत्री फिर छत्तीसगढ़ में केबिनेट मंत्री बन गये। जब शादी हुई तो श्री भूपेश बघेल में कोई कुछ विशेषता नहीं देख पा रहा था। खाते-पीते घर के एक स्वस्थ सुंदर युुवक के भीतर छिपी संभावनाओं को स्वामी जी ही पहचान सकते थे। अपनी आक्रामक शैली के लिए प्रसिद्ध भूपेश बघेल को धर्म और साहित्य के संस्कारों से समृद्ध जीवन संगीनी मिली।

विवाह के बाद उत्तरोत्तर उनका विकास हुआ। आज वैचारिक स्तर पर श्री भूपेश बघेल की गिनती छत्तीसगढ़ के गिने चुने गंभीर जन-नेताओं में होती है। निश्चित रूप से उनके इस विकास में ंस्वामी जी के परिवार से मिली विपुल वैचारिक पूंजी का पर्याप्त हाथ है।

स्वामी जी की उदार परंपरा में ही गृहस्थ डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा भी ढले थे। उन्होंने जीवन भर जागृति और परोपकार का काम किया। भाषा एवं संस्कृति के लिए उनका नाम स्तुत्य है तो धर्म एवं लोकमंच के लिए उनका अवदान भी ऐतिहासिक है। वे विवेक ज्योति पत्रिका के संपादक रहे। स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी 1963 में मनाई गई. स्वामी आत्मानंद के सपनों को साकार करने के लिए नरेन्द्र देव वर्मा ने दिन रात काम किया। उन्होंने जीवन भर शाम के तीन घंटों को आश्रम के लिए सुरक्षित रखा। वे नौ बजे रात्रि तक आश्रम के कामों में व्यस्त रहते। उसके बाद घर आकर मित्रो से मिलते-जुलते और रात्रि 4 बजे तक लेखन अध्ययन करते।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा छत्तीसगढ़ के पहले बड़े लेखक है जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखकर मूल्यवान थाती सौंप गए. वे चाहते तो केवल हिन्दी में लिखकर यश प्राप्त कर लेते। लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी की समृद्धि के लिए खुद को खपा दिया। वे पहले बड़े लेखक हंै जो मंच संचालक के रूप में बेहद यशस्वी बने। सोनहा बिहान में मंच संचालक ही सबसे प्रभावी अभिनेता सिद्ध हुआ।

वे कविताओं की स्वर लिपियाँ रचने वाले छत्तीसगढ़ के पहले बड़े रचनाकार हैं। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के अग्रज स्वामी आत्मानंद ने लिखा है कि माँ शारदा देवी की पावन जन्म स्थली जयरामवाटी जाकर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने माँ से वरदान मांगा कि उन्हें वे अपना पुत्र बना लें और माँ शारदा की कृपा से उसी दिन से नरेन्द्र देव की लेखनी में चमत्कार दिखने लगा। रविवार 26 दिसम्बर 1959 को उन्हें माँ का आशीष मिला।

देवेन्द्र जी के बाद स्वामी जी के भाई राजेन्द्र भी रामकृष्ण मिशन के लिए समर्पित हो गए. भाई राजेन्द्र के लिए भी नरेन्द्र देव वर्मा ने मार्ग प्रशस्त किया। अपने अग्रज के सामने उन्होंने श्री राजेन्द्र का पक्ष लिया। छोटे भाई ओमप्रकाश भी आज उसी भावधारा से जुड़कर विवेकानंद विद्यापीठ को संचालित करते हुए ज्ञान का अभूतपूर्व वातावरण बना रहे हैं। उनके विद्यालय की विराटता देखते ही बनती है। प्रो. ओमप्रकाश वर्मा जी प्रख्यात शिक्षाविद् एवं चिंतक हैं। वे भी अविवाहित हैं।

इस तरह पांच भाईयों में मात्र नरेन्द्र देव वर्मा ही विवाह बंधन में बंधे। माता पिता की सेवा करने के लिए वे गृहस्थ हो गये।

जीवन भर वे अपने अग्रज को आदर्श मानते रहे लेकिन सदगृहस्थ बनकर अपने दायित्वों का पूर्ण मनोयोग से निर्वाह भी करते रहे।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा उम्र के चालीसवें पड़ाव पर पहुंचने से पहले ही इस लोक को छोड़ गये। स्वामी आत्मानंद ने उनके निधन के बाद संस्मरण लिखा। इस संस्मरण में उनके प्रति स्वामी जी की प्रीति देखते ही बनती है। स्वामी आत्मानंद जी भी अकस्मात हम सबको बिलखता छोड़ गए. छत्तीसगढ़ महतारी के ये सपूत अपने छोटे से जीवन में वह काम कर गये जो सैकड़ों वर्षो का जीवन पाकर भी सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर पाता।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा कवि, चिंतक, उपन्यासकार, नाटककार, संपादक और मंच संचालक की भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में अपनी अपूर्व क्षमता की छाप छोड़ गये हैं। वे जीवन भर मृत्युंचिंतन करते रहे। वे चढ़ती जवानी की उम्र में ऐसी विदग्ध करने वाली पंक्तियाँ लिखते रहे ...

' जीवन की संध्या समीप है
मृत्यु खड़ी है द्वारे,
प्राण विहग ने नीड़ छोड़ने
को अब पंख पसारे'

शायद उन्हें आभास था कि उनके पास समय बहुत कम है। इसलिए वे लगातार अपने दायित्वों के निर्वाह में लगे रहे। रात दिन काम में जुटे रहे। स्वामी आत्मानंद जी ने लिखा है ...

मृत्यु से दो तीन महिने पूर्व वह मानो सब कुछ समेट रहा था। अपने एक मित्र से उन्होंने कहा था–'तुम ज़रा मेरे घर को संभालना।'

... 'क्यों क्या बात है? मित्र ने चौंक कर पूछा।'

... 'बाहर जाने की तैयारी कर रहा हूँ।'

... 'कहाँ, कितने समय के लिए?'

... 'विदेश जाने की सोच रहा हूँ, दो तीन बरस के लिए. तुम मेरे परिवार को देखना। हो सकता है कुछ अधिक ठहर जाऊँ।'

पर नरेन्द्र, तुम विदेश ही चले गए, घर न लौटने के लिए. अमर गीतों में सहगल गाते हैं ...

' अंगना तो देहरी भई,
और देहरी भई विदेश,
ले बाबुल घर अपनों,
मैं चली पिया के देस।'

छत्तीसगढ़ में कबीर के दर्शन का प्रभाव रचा बसा है। लोकमंच पर तो कबीर की वैचारिक भव्यता देखते ही बनती है। लोकमंच के लिए समर्पित डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा जैसे बैरागी कवि ही ऐसा लिख सकते थे ...

' दुनिया अठवारी बाज़ार रे, उसल जाही,
दुनिया कागद के पहार रे, उफल जाही। '

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा जहर पीकर अमृत का अनुसंधान करते थे। दाऊ रामचंद्र देशमुख ने जब चंदैनी गोंदा को भव्य स्वरूप दिया तब उनके आमंत्रण पर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा बघेरा गये। भाषा विज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा को भी साथ ले गये। कुछ दिनों बाद दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ओपन एयर थियेटर सिविक सेंटर में चंदैनी गोंदा का प्रदर्शन रखा। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा उस प्रदर्शन में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। ठीक समय पर जब डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तो वहाँ उन्हें रिसीव करने वाला कोई सामने नहीं आया। डॉ. साहब उसी पाँव लौट गये। वे बेहद विन्रम थे मगर स्वाभिमान को कभी गिरवी न रख सके. शायद बीज रूप में यह घटना उनके भीतर गहराई में कहीं घर कर गई. लेकिन आहत होकर भी उन्होंने सोनहा बिहान का सपना देखा। यह स्वस्थ स्पर्धा थी। दाऊ रामचंद्र देशमुख जैसे लोकमंच के शो मैन भी नतसिर स्वीकारते थे कि सोनहा बिहान एक यादगार और भव्य कृति सिद्ध हुई. सोनहा बिहान न होता तो छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला ममता को अभ्यास और विकास का ऐसा चमत्कारपूर्ण अवसर न मिलता। सोनहा बिहान के मंच से जो कलाकार उभरे वे आज छत्तीसगढ़ के मंचीय रत्न हैं। मुकुन्द कौशल और रामेश्वर वैष्णव के गीतों ने छत्तीसगढ़ को नया आस्वाद दिया। वे कवि जन-जन के प्रिय हो गये। सोनहा बिहान ने ही दीपक और लक्ष्मण जैसे कलाकारों को उभर कर सामने आने का अवसर दिया।

अंत में कुछ मेरी अपनी बात भी। मैं डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के लेखकीय कौशल का कायल था। हिन्दी में एम.ए. कर लेने के पश्चात् पी.एच.डी. करने के लिए पहले मैं गुरूदेव हरिशंकर शुक्ल के पास गया। उन्होंने पहले हरिशंकर परसाई पर शोध करने के लिए कहा लेकिन अंत में उपेन्द्रनाथ अश्क के साहित्य पर सिनाप्सिस बनी। मैं अश्क साहित्य मंगवा चुका था। तैयारी होने लगी कि पुस्तकों के मूल्य पर मैंने अश्क जी को कुछ तीखा-सा पत्र लिख दिया। वे अपनी किताबों के प्रकाशक भी थे। वे पुरानी किताबों पर नये मूल्य की सील लगाकर किताबें भेज रहे थे। मैंने लिख दिया कि मैं फौज में रहा हूँ। वहाँ नेपाली सिपाही कहते थे कि कुछ देशी किस्म की बटालियनों के जवान मोर्चे में आगे बढ़कर फायर नहीं करते, एक जगह रहकर राइफल की रेंज भर बढ़ाते रहते है। रेंज बढ़ाउनों, फायर कराउनों। यह उक्ति थी। उसी तरह आपने भी नया तो कुछ प्रकाशित नहीं किया केवल पुरानी किताब पर सील लगाकर उसी का दाम बढ़ा दिया।

अश्क जी मेरे इस कथन पर भड़क गये और मैंने उन पर पी.एच.डी. करना छोड़ दिया। पूरी किताबें आज भी देशबन्धु के पुस्तकालय में है। मैं किताबों को श्री ललित भैया को सौंप कर मुक्त हो गया।

लेकिन मन में डॉक्टर बनने की ललक थी। मैं 1965-66 में आयुर्वेदिक महाविद्यालय का विद्यार्थी भी रहा। लेकिन डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी न कर रोजी की खातिर फौज में चला गया। वहाँ से लौटकर फिर मैंने मजूरी करते हुए एम.ए. किया। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की कीर्ति चारों ओर थी। अश्क जी से निराश होकर मैं स्वप्रेरणा से विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग चला गया। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा तब वहीं थे। वे स्टॉफ रूम में मिल गये। मैंने अपना नाम बताया तो उन्होंने काम पूछा। मैंने कहा कि सर मैं आपके अंडर पी.एच.डी. करना चाहता हूँ। उन्होंने पूछा कि एम.ए. कहाँ से किया हैं। मैंने बताया कि छत्तीसगढ़ महाविद्यालय से किया है सर। वहाँ आपके शिष्य विनोद शंकर शुक्ल मेरे गुरु थे। उन्होंने मुझे आपके बारे में बताया। यह सुनकर वे खूब हंसे। हंसते हुए उन्होंने कहा कि तुम शिष्य के शिष्य हो, उस रिश्ते से तो मेरे नाती हुए. मैं भी उनकी इस चुटकी पर मुस्करा उठा। उन्होंने पास बिठाकर पूछा कि रायपुर के अपने किसी गुरु को क्यों नहीं गाइड बना लेते। तब मैंने सारा किस्सा कह सुनाया। इस पर वे पुन: ठठाकर हंसे। बोले तुम तेज लड़के हो। डॉक्टर ज़रूर बनोगे। उन्होंने कहा कि तुमने अब तक जो कुछ लिखा है वह मुझे दे जाओं। मैं दूसरे दिन जाकर अपनी कविताओं के रजिस्टरों को सौंप आया। दो रजिस्टर भर कविताएँ थी। उन्होंने कहा कि फौज में रहकर भी तुम लगातार लिखते पढ़ते रहे यह बहुत अच्छी बात है। इसका मतलब है कि तुम हर परिस्थिति में लिखोगे ज़रूर।

26 अगस्त 2005 को जब मेरा पांव टूटा और मैं नौ माह के लिए बिस्तर पर जा पड़ा तब डॉक्टर साहब बेहद याद आये।

बिस्तर पर रहकर ही मैंने संस्मरण की किताब 3हंसा उड़िगे अगास4, उपन्यास 3सूतक4 को प्रकाशित करवा दिया। लोग मेरी जिजीविषा की दाद देते थे तो मुझे गुरूवर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की उक्ति याद आती थीं कि तुम हर परिस्थिति में लिखोगे ज़रूर।

उन्होंने मेरी कविताओं पर सविस्तार टिप्पणी देकर मुझे दिशा निर्देश दिया। छत्तीसगढ़ी गद्य एवं पद्य का तब तक का इतिहास उन्होंने मेरे ही रजिस्टर में लिख दिया। लगभग तीस लेखकों के नाम की सूची भी उस रजिस्टर में हैं।


उन्होंने आदेश दिया कि इनकी किताबें एकत्र कर मैं पढ़ूं। 77 में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। इधर उधर प्रकाशित रचनाओं पर उनकी नजर रहती थी। एक बारमैं मिला तो उन्होंने कहा-3परदेशी, तुम अपनी शक्ति पी.एच.डी. करने में मत लगाओ. इतना अच्छा लिख रहे हो कि लोग तुम पर पी.एच.डी. करेंगे और तुम डॉक्टर भी बनोगें। 4 मैं उनसे यह सुनकर अवाक रह गया। बिना पी.एच.डी. किये मैं डाक्टर कैसे बनूंगा और भला कहाँ लिखूंगा कि लोग उस पर शोध करें।

लेकिन उस देवतुल्य व्यक्ति की दोनों ही बातें सच साबित हुई. मैं लगातार लिखता गया और 2003 में मुझे पंड़ित रविशंकर विश्वविद्यालय से मानद डी.लिट की उपाधि मिल गई. चार लघु शोध तो पहले ही लोग कर चुके थे। अब मेरे साहित्य पर शोध भी विधिवत् प्रारंभ हो गया है।

डॉ. ओमप्रकाश वर्मा यह सब प्रसंग नहीं जानते मगर उस दिन मैं चकित रह गया जब सबसे पहले उन्होंने ही मुझे बताया कि विश्व विद्यालय से मुझे मानद उपाधि दी जाने वाली है। मैं तब से डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को प्रतिपल याद करता हूँ। देवताओं का कहा कैसे सच साबित होता है यह मैंने अपने जीवन में देखा, महसूस किया।

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा 1977 में राजनीति में भी कूदने वाले थे। वे चुनाव लड़ने का संकल्प ले चुके थे। लेकिन उनके अग्रज स्वामी आत्मानंद ने उन्हें रोक दिया। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा तो चुनाव नहीं लड़ पाये मगर उनके दामाद ने लड़कर जीतने का इतिहास रच लिया है। श्री भूपेश बघेल पाटन क्षेत्र से तीन बार लड़कर जीते हैं। ऐसा कीर्तिमान बनाने वाले वे अब तक के अकेले व्यक्ति हैं। पाटन में लगातार जीत किसी की नहीं होती।

' चारों ओर प्रगति के द्वारों पर दुश्मन की बंदूकें हैं,
आज सूर्य को गिरवीं रक्खें ऐसी उनकी संदूकें हैं,
उनके ही इंगित पर शोषण दैत्य यहाँ इठलाता रहता,
दरिद्रता इतराती रहती, दुख अभाव मुसकाता रहता। '