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डॉ नरेंद्र मोहन हिंदी के वरिष्ट साहित्यकार है
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डॉ नरेंद्र मोहन हिंदी के वरिष्ट साहित्यकार है. 30 जुलाई,1935 को लाहौर में जन्में नरेंद्र मोहन जी ने विभाजन के जो हौलनाक दृश्य देखें
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थे, वे आज भी उनका पीछा कर रहे है. उन दिनों की स्मृतियों की अपूर्व अभिव्यक्ति उनके सृजनात्मक लेखन, विशेष तौर पर नाटकों और लंबी कविताओं में हुई हैं. स्वाधीनता मिलने के पश्चात 19 अगस्त ,1947 को वे अपने माता पिता के साथ अमृतसर आ गए.
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      नरेंद्र मोहन ने एम्.ए(हिंदी) की उपाधि सन 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से प्राप्त की तथा 'आधुनिक हिंदी कविता' पर पी.एच.डी उसी विश्वविद्यालय से ग्रहण की. सन 1958 में खालसा कॉलेज, लुधियाना में उन्होंने प्राध्यापन कार्य का समारंभ किया तथा पंजाब के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालय में सात वर्ष तक कार्य करने के बाद वे 09 जनवरी,1967 दिल्ली में श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय) में आ गए. सन 1988 में वे हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर नियुक्त हुए. भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ने उन्हें विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया , जहाँ उन्होंने 'विभाजन और भारतीय कहानिया' विषय पर विशेष व्याख्यान दिए.
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      प्रारंभ से ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शोध कार्यकर्मो और गतिविधियों  से संबद्ध रहे हैं. पी.एच.डी  के लगभग तीस शोध प्रबंधों का और ऍम .फिल्. के लगभग पचास लघु शोध प्रबंधों का वे निर्देशन कर चुके है. सृजनात्मक और आलोचनात्मक प्रवति उनमें  शुरू से ही रही है. उनकी पहली कविता और लेख 1954 में प्रकाशित हुए और तब से उनकी कविताएँ और लेख महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे है. सन 1960 तक वे साहित्यिक क्षेत्रों में सुपरिचित हो चुके थे.
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      उनका पहला कविता संग्रह 'इस हादसे में' (1975) प्रकाशित हुआ. तब से उनके छः कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. वे एक काव्यान्दोलन 'विचार कविता' के सूत्रधार हैं. 'लंबी कविता' को काव्य-विमर्श के केन्द्र में लाने की पहल भी उन्होंने की हैं.
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      एक कवि  के नाते ही नहीं, नाटककार और आलोचक के रूप में भी वे जाने जाते हैं. उन्होंने सात नाटक लिखे हैं, जो प्रतिस्थापित नाट्य संस्थाओ द्वारा मंचित हुए है और दूरदर्शन पर भी दिखाए गए हैं .
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      साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया है. एक आलोचक के तौर पर उनकी ख्याति का आधार उनकी दस आलोचनात्मक पुस्तकें और लगभग १५ संपादित पुस्तकें हैं. विभाजन और भारतीय भाषाओ की कहानियाँ, समकालीन कविता, कथा-साहित्य और उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार मंटो पर अपने कार्य से वे विशेष रूप से जाने गए है.
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      डा नरेंद्र मोहन की पंजाबी और अंग्रेजी में भी सामान गति है .पंजाबी में उनके तीन नाटक और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और अंग्रेजी में उनकी एक पुस्तक 'The Eternal 'No' ; Protest & Literature' पर्याप्त चर्चा का विषय रही है.
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      लेखन के साथ-साथ वे सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी समान रूप से सक्रिय रहे हैं. तीन वर्ष तक 'भारतीय लेखक संघ'(Association of Indian Writers) के महासचिव रहने के पश्चात वे इस संगठन के अध्यक्ष भी रहे हैं. एक साहित्यिक पत्रिका 'संचेतना' के संपादन के साथ वे पांच वर्ष तक संबद्ध रहे हैं तथा साहित्य अकादमी की उतर क्षेत्रीय पत्रिका 'उतरा' का भी उन्होंने संपादन किया है. साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें राष्टीय और प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हो चुके हैं.
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      विभिन्न राष्ट्रीय सम्मेलनों और साहित्यिक परिसंवादो कि उन्होंने अध्यक्षता की है. मस्कट में आयोजित एक साहित्यिक कार्यशाला में उन्होंने भाग लिया और विभिन्न साहित्यिक विषयों पर विशेष व्याख्यान दिए 'केन्द्रिय हिंदी निदेशालय' द्वारा 'नाट्य लेखन और रंगमंच की समस्याओ' पर आयोजित एक संगोष्ठी की उन्होंने अध्यक्षता की. भारतीय उच्च अध्ययन संसथान, शिमला द्वारा उन्हें मंटो पर आलेख पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया. उसी संसथान द्वारा 'स्वाधीनता के पचास वर्ष' विषय पर आयोजित एक सेमिनार में भी उन्होंने भाग लिया. उनकी कहानी पर आधारित २६ कड़ियों का एक धारावाहिक 'उजाले की ओर' दूरदर्शन के राष्टीय प्रसारण के अंतर्गत प्रसिद निर्देशक श्री ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में प्रसारित किया गया.

10:25, 8 जून 2010 का अवतरण

डॉ नरेंद्र मोहन हिंदी के वरिष्ट साहित्यकार है. 30 जुलाई,1935 को लाहौर में जन्में नरेंद्र मोहन जी ने विभाजन के जो हौलनाक दृश्य देखें थे, वे आज भी उनका पीछा कर रहे है. उन दिनों की स्मृतियों की अपूर्व अभिव्यक्ति उनके सृजनात्मक लेखन, विशेष तौर पर नाटकों और लंबी कविताओं में हुई हैं. स्वाधीनता मिलने के पश्चात 19 अगस्त ,1947 को वे अपने माता पिता के साथ अमृतसर आ गए.

     नरेंद्र मोहन ने एम्.ए(हिंदी) की उपाधि सन 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से प्राप्त की तथा 'आधुनिक हिंदी कविता' पर पी.एच.डी उसी विश्वविद्यालय से ग्रहण की. सन 1958 में खालसा कॉलेज, लुधियाना में उन्होंने प्राध्यापन कार्य का समारंभ किया तथा पंजाब के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालय में सात वर्ष तक कार्य करने के बाद वे 09 जनवरी,1967 दिल्ली में श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय) में आ गए. सन 1988 में वे हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर नियुक्त हुए. भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ने उन्हें विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया , जहाँ उन्होंने 'विभाजन और भारतीय कहानिया' विषय पर विशेष व्याख्यान दिए. 
     प्रारंभ से ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शोध कार्यकर्मो और गतिविधियों  से संबद्ध रहे हैं. पी.एच.डी  के लगभग तीस शोध प्रबंधों का और ऍम .फिल्. के लगभग पचास लघु शोध प्रबंधों का वे निर्देशन कर चुके है. सृजनात्मक और आलोचनात्मक प्रवति उनमें  शुरू से ही रही है. उनकी पहली कविता और लेख 1954 में प्रकाशित हुए और तब से उनकी कविताएँ और लेख महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे है. सन 1960 तक वे साहित्यिक क्षेत्रों में सुपरिचित हो चुके थे. 
     उनका पहला कविता संग्रह 'इस हादसे में' (1975) प्रकाशित हुआ. तब से उनके छः कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. वे एक काव्यान्दोलन 'विचार कविता' के सूत्रधार हैं. 'लंबी कविता' को काव्य-विमर्श के केन्द्र में लाने की पहल भी उन्होंने की हैं.
     एक कवि  के नाते ही नहीं, नाटककार और आलोचक के रूप में भी वे जाने जाते हैं. उन्होंने सात नाटक लिखे हैं, जो प्रतिस्थापित नाट्य संस्थाओ द्वारा मंचित हुए है और दूरदर्शन पर भी दिखाए गए हैं .
     साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया है. एक आलोचक के तौर पर उनकी ख्याति का आधार उनकी दस आलोचनात्मक पुस्तकें और लगभग १५ संपादित पुस्तकें हैं. विभाजन और भारतीय भाषाओ की कहानियाँ, समकालीन कविता, कथा-साहित्य और उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार मंटो पर अपने कार्य से वे विशेष रूप से जाने गए है.
     डा नरेंद्र मोहन की पंजाबी और अंग्रेजी में भी सामान गति है .पंजाबी में उनके तीन नाटक और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और अंग्रेजी में उनकी एक पुस्तक 'The Eternal 'No' ; Protest & Literature' पर्याप्त चर्चा का विषय रही है.
     लेखन के साथ-साथ वे सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी समान रूप से सक्रिय रहे हैं. तीन वर्ष तक 'भारतीय लेखक संघ'(Association of Indian Writers) के महासचिव रहने के पश्चात वे इस संगठन के अध्यक्ष भी रहे हैं. एक साहित्यिक पत्रिका 'संचेतना' के संपादन के साथ वे पांच वर्ष तक संबद्ध रहे हैं तथा साहित्य अकादमी की उतर क्षेत्रीय पत्रिका 'उतरा' का भी उन्होंने संपादन किया है. साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें राष्टीय और प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हो चुके हैं.
     विभिन्न राष्ट्रीय सम्मेलनों और साहित्यिक परिसंवादो कि उन्होंने अध्यक्षता की है. मस्कट में आयोजित एक साहित्यिक कार्यशाला में उन्होंने भाग लिया और विभिन्न साहित्यिक विषयों पर विशेष व्याख्यान दिए 'केन्द्रिय हिंदी निदेशालय' द्वारा 'नाट्य लेखन और रंगमंच की समस्याओ' पर आयोजित एक संगोष्ठी की उन्होंने अध्यक्षता की. भारतीय उच्च अध्ययन संसथान, शिमला द्वारा उन्हें मंटो पर आलेख पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया. उसी संसथान द्वारा 'स्वाधीनता के पचास वर्ष' विषय पर आयोजित एक सेमिनार में भी उन्होंने भाग लिया. उनकी कहानी पर आधारित २६ कड़ियों का एक धारावाहिक 'उजाले की ओर' दूरदर्शन के राष्टीय प्रसारण के अंतर्गत प्रसिद निर्देशक श्री ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में प्रसारित किया गया.