Last modified on 12 मई 2009, at 14:36

नव्य न्याय का अनुशासन-1 / लक्ष्मीकांत वर्मा

तुम्हारे इर्द-गिर्द फैलती अफ़वाहों से
मैं नहीं घबराता
तुम्हारे आक्रोश, क्रोध और आदेश से भी
मैं नहीं डरता

जब तुम चीख़ते-चिल्लाते, शोर मचाते हो
मैं तुम्हें आश्चर्य से नहीं देखता,
क़िताबों को फाड़कर जब तुम होली जलाते हो
हर हरियाली को चिता की सुलगती आग में--
बदलना चाहते हो,

मौलश्री की घनी छाया में आफ़ताब
वट-वृक्षों की वृद्ध जटाओं में सैलाब
और गुलमोहर की सुर्ख़ियों में
मशालों की रोशनी

पहाड़ों की चढ़ाइयों पर ज्वालामुखी
उगने की सभी आकांक्षाएँ मुझे ललकारती हैं
और मैं कुपित नहीं होता।

मैं निरन्तर तुम्हारे साथ होता हूँ
ख़ामोश लेकिन बहुत नज़दीक
मेरी ख़ामोश पुतलियाँ देखती हैं तुम्हारे चेहरे
मेरे कान सुनना चाहते हैं वे आहटें
कि तुम कब अपनी आग को
पराई व्यथा से जोड़ोगे
अपने दर्द को उस हद तक ले जाओगे
जिसमें केवल तुम्हारा दर्द नहीं
दूसरे का दर्द भी शामिल होगा।

कब तुम अकेले समूह बन पाओगे
और समूह को अकेला छोड़ दोगे
क्योंकि तब मेरी ख़ामोशी
तुम्हारी आवाज़ के साथ होगी
और मैं निरन्तर तुम्हारे साथ हूंगा
कभी अकेला समूह-सा
कभी समूह-सा अकेला

ईसा ने कहा : उत्सर्गित होने के पहले
मैंने जो सलीब कंधों पर रखी थी
तो लगा था-- मैं अकेला हूँ
लेकिन जब चढ़ने लगा सलीब लादे चढ़ाइयाँ
मुझे लगा मेरे कन्धों पर सलीब नहीं
पूरे समूह की आस्था है
एक ब्रह्माण्ड ही मेरे साथ गतिमान है
किन्तु जब मैं पुनर्भाव में लौटा
तो नितान्त अकेला था।