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"नव सुमंगल गीत गाएँ / अजय पाठक" के अवतरणों में अंतर

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रिश्मयों को आज फिर,  
 
रिश्मयों को आज फिर,  
 
आकर अंधेरा छल न जाए,
 
आकर अंधेरा छल न जाए,
आैर सपनों का सवेरा,  
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और सपनों का सवेरा,  
व्यथर् हो निकल न जाए।
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व्यर्थ् हो निकल न जाए।
 
हम अंधेरों का अमंगल,  
 
हम अंधेरों का अमंगल,  
 
दूर अंबर से हटाएं,
 
दूर अंबर से हटाएं,
एक दीपक तुम जलाआे,  
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एक दीपक तुम जलाओे,  
 
एक दीपक हम जलाएं।
 
एक दीपक हम जलाएं।
  
आंिधयां मुखिरत हुई है,  
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आधियां मुखिरत हुई है,  
 
वेदना के हाथ गहकर,
 
वेदना के हाथ गहकर,
आैर होता है सबलतम,  
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और होता है सबलतम,  
 
वेग उनका साथ बहकर।
 
वेग उनका साथ बहकर।
 
झिलमिलाती रिश्मयों की,  
 
झिलमिलाती रिश्मयों की,  
अस्िमता को फिर बचाएं,
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अस्मिता को फिर बचाएं,
एक दीपक तुम जलाआे,  
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एक दीपक तुम जलाओे,  
 
एक दीपक हम जलाएं।
 
एक दीपक हम जलाएं।
  
 
अब क्षितिज पर हम उगाएं,  
 
अब क्षितिज पर हम उगाएं,  
स्वणर् से मंिडत सवेरा,
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स्वर्ण् से मंडित सवेरा,
आैर धरती पर बसाएं,  
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और धरती पर बसाएं,  
शांित का सुखमय बसेरा।
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शांति का सुखमय बसेरा।
 
हम कलह को भूल कर सब,
 
हम कलह को भूल कर सब,
 
नव-सुमंगल गीत गाएं,
 
नव-सुमंगल गीत गाएं,
एक दीपक तुम जलाआे,  
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एक दीपक तुम जलाओे,  
 
एक दीपक हम जलाएं।
 
एक दीपक हम जलाएं।
 
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00:08, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण

रिश्मयों को आज फिर,
आकर अंधेरा छल न जाए,
और सपनों का सवेरा,
व्यर्थ् हो निकल न जाए।
हम अंधेरों का अमंगल,
दूर अंबर से हटाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।

आधियां मुखिरत हुई है,
वेदना के हाथ गहकर,
और होता है सबलतम,
वेग उनका साथ बहकर।
झिलमिलाती रिश्मयों की,
अस्मिता को फिर बचाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।

अब क्षितिज पर हम उगाएं,
स्वर्ण् से मंडित सवेरा,
और धरती पर बसाएं,
शांति का सुखमय बसेरा।
हम कलह को भूल कर सब,
नव-सुमंगल गीत गाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।