Last modified on 27 जनवरी 2016, at 01:55

नहीं दिया हक़ / अर्पण कुमार

मैंने किसी को नहीं दिया हक़
कि कोई प्रमाणपत्र दे मुझे
मेरी योग्यता या अयोग्यता का
मेरे देशप्रेम या देशद्रोह का
मेरे सफल या असफल होने का
मेरे दक्षिणपंथी या वामपंथी होने का
मेरे चरित्रवान
या कि मेरे चरित्रहीन होने का
मेरे आस्तिक
या कि नास्तिक होने का
कि मेरे विचार किसी संगठन के
झंडे का मोहताज नहीं
कि मेरी जीवन-शैली
स्वयं मेरा चुनाव है
कि मेरी आस्था-अनास्था से
किसी धर्म के पैराकारों का
कोई लेना देना नहीं है
नागरिक व्यवस्था में
एक जिम्मेदार नागरिक की
भूमिका निभाता मैं
परिचित हूँ भलीभाँति
अपने अधिकारों से
और उससे भी पहले
अपने कर्तव्यों से
यह देश जितना
इसके हुक्मरानों का है
उससे तनिक भी
कम मेरा नहीं है
शायद उनसे कहीं अधिक मेरा है
क्योंकि मैं हर तरह से
पिसकर भी
यहाँ पड़ा हुआ हूँ
स्वेच्छा से और साधिकार;
अपनी तमाम उम्मीदों पर
तुषारापात होने के बावजूद
कहीं कोई एक हरी जिद्दी दूब
आशा और उमंग की
निकल पड़ती है
हर बार
इस बंजर में
अपने तमाम असंतोषों के बावजूद
कम से कम इतना संतोष तो है
कि व्यक्त कर लेता हूँ
अपना असंतोष
कभी-कभार
कुछेक शब्दों तो
कुछेक नारों की शक्ल में
इस देश के स्वर्ण-कलश को
चाहे अपने पैरों ठुकराता हूँ
मगर इस देश की धूल-मिट्टी को
अपने मस्तक से लगाकर रखता हूँ

मैं एक साधारण
नागरिक मात्र हूँ
इसलिए हर पाँच साल में
किसी ऐरे-गैरे को यह
हक़ नहीं मिल जाता कि
वह मेरे लिए
चाहे जो मर्जी
फरमान जारी कर दे
सत्ता बदलती है
सत्ता में बैठे लोग भी
और बदलता है
सत्ता का चरित्र भी
जानता हूँ यह सब
इसलिए परवाह नहीं करता
ऐसे दरबारों की
शामिल नहीं होता
किसी गुट में
अपनी फटेहाली से मुझे प्यार है
और गर्वित हूँ अपनी गुर्बत पर
नहीं चाहिए मुझे
हराम का एक भी पैसा
इसलिए फटकार सकता हूँ
किसी को
हानि-लाभ की
किसी अभीप्सा से
होकर मुक्त पूरी तरह
मैंने किसी को नहीं दिया हक़
कि कोई बोली लगाए
मेरे लिखे की,
मेरी कलाकृतियों की
कि इन्हें कोई ऊँचा दाम देकर
मुझे खरीद ले सस्ते मे
मैंने किसी को नहीं दिया हक़
कि कोई मुझे उपकृत करे
धन-धान्य से, मान-सम्मान से
मुझे स्वीकार है अलग-थलग रहना
मगर मैं अस्वीकारता हूँ
बाज़ार के बढ़ते डैनों को
पसरते बाजारूपन को
हमारे संबंधों के बीच

मैं बेशक मिसफिट रहूँ
व्यवस्था में
मगर मैं मिसलिड
नहीं करना चाहता
खुद को
व्यावहारिकता के चपल तर्कों से
मैंने किसी को नहीं दिया हक़
कि कोई मुझे
प्रमाणपत्र जारी करे
धौंस में या
अपनी हेकड़ी में
कि कोई अपने रँगीन चश्मे से
घूरे मुझे कुछ देर
और अंधेरी बंद अकादमियों से
निकलनेवाला कोई
रंगीन प्रशस्ति-पत्र थमा दे मुझे
कभी अचंभित करती हड़बड़ी में तो
कभी असाधारण रूप से हुई देरी में

 
मैं नही चाहता
अपने लिए ऐसी
कोई शक्ति-पीठ या
ऐसा कोई विचार-मठ
जहाँ झुकते लोग आएँ मेरे पास
और गाएँ मेरी
विरुदावली दूर से ही
मुझे नहीं है शौक
कि कोई आकर मेरी
चरण-वंदना करे
मेरी ठकुर-सुहाती करे
मुझे नहीं है
तनिक भी महत्वाकांक्षा
किसी को कोई
प्रमाणपत्र देने का


सुना मठाधीशो,
शक्ति-पीठ के आचार्यो,
अकादमी के अध्यक्षो,
मैं नकारता हूँ गला फाड़कर
तुम्हारे अबतक दिए गए
सभी प्रमाण-पत्रों को
तुम्हारे कथित आशीर्वादों को
तुम्हारी निर्रथक और
फरेबी महानता को
वे झूठे, मनगढ़ंत और यादृच्छिक हैं
तुम्हारी प्रशंसा
किसी अंधे द्वारा
अंधों को बाँटी गई रेवड़ियाँ हैं
तुम्हारा फरमान
किसी अंधेर नगरी के
चौपट राजा का फरमान है
जहाँ फंदे के नाप से फिट
आए गले को
फाँसी दे दी जाती है या
फूलों की माला पहना
दी जाती है

मैंने किसी को नहीं दिया हक़
कि कोई मेरे गले की नाप ले ।