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नागलोक में अर्जुन / गढ़वाली लोक-गाथा

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

द्रोपती अर्जुन, सेयां छया।
रातुड़ी<ref>रात</ref> होये थोड़ा, स्वीणा<ref>सपने</ref> ऐन भौत<ref>बहुत</ref>
सुपिना मा देखद अर्जुन-
बाली<ref>कुमारी</ref> वासुदन्ता, नागू की धियाणी<ref>बहन</ref>।
मन ह्वैगे मोहित, चित्त ह्वैगे चंचल।
वीं की ज्वानी मा, कनो उलार<ref>मजा</ref> छौ,
वीं की आँख्यों मा, माया<ref>प्रेम</ref> का रैबार<ref>संदेश</ref> छौ।
समलीक मुखड़ी वीं की, अर्जुन सोचण लैगे-
कसु<ref>कैसे</ref> कैक जौलू, नाग लोक मा।
तैं नाग लोक मा, नाग होला डसीला,
मुखड़ी का हंसीला होला, पेट का गसीला।
मद पेन्दा हाथी होला, सिंगू वाला खाडू<ref>मेटे</ref>,
मरक्बाल्या भैंसा होला, मैं मार्न औला।
लोहा की साबली होली, लाल बणाई

चमकदी तरवीरी होली, उंकी पल्याई<ref>तेज किये</ref>।
नागू की चौकी बाड़, होली पैहरा,
कसु कैक जौलू मैं, तैं नागलोक मा।
कमर कसदो अर्जुन तब, उसकारा भरदो।
मैन मरण बचण, नागलोक जाण।
रात को बगत छयो, दुरपदा सेयीं छयी,
वैन कुछबोल न चाल्यों, चल दिने नागलोक।
मदपेन्दा हाती वैन, चौखालू चीरेन,
लुवा की साबली, नंगून तोड़ीन।
तब गैं अरजुन, वासुदन्ता का पास।
तब देखी वासुदन्ता, हाम<ref>सोना</ref> से हाम<ref>चमक</ref>,
धाम से<ref>अलौकिक</ref> धाम, पूनो जसो चाम।
नोणीवालो<ref>मक्खन</ref> नामो, जीरा<ref>बारीक चावल</ref> वालो पिंड<ref>कौर</ref>,
सुवर्ण तरुणी देई, चन्दन की लता,
पायी पतन्याली, आँखी रतन्याला,
हीरा की-सी जोत, जोन सी उदोत।
तब गै अरजुन, सोना रूप बणी,
बासुदन्तान वो, उठीक बैठाये अर्जुन,
वीं को मन मोहित होई गये-
तब वींन जाण नी दिने घर वो-
तू होलो अर्जुन, मेरो जीवन संगाती,
तू होलो भौंर, मैं होलू गुलाबी फूल,
तू होलो पाणी, मैं होलू माछी-
तू मेरो पराण छई, त्वै मैं जाा न देऊँ।
तब तखी रगे अरजुन, कई दिन तई।
जैन्तीवार मा, दुरपदा की निंदरा खुले,
अर्जुन की सेज देखे, वीन-कख गैहोला नाथ?

जाँदी दुरपदा, कोन्ती मात का पास-
हे सासु रौल तुमन, अपणू बेटा भी देखे?
तब कोन्ती माता, कनो स्वाल देन्दी-
काली रूप धरे, अर्जुन तिन भक्ष्याले,
अर भैंमू सच्ची होण क आई गए।
तब कड़ा बचन सुणीक दुरपती,
दममण रोण लगदे।
तब जांदे दुरपती, बाणू कोठड़ी,
वाण मुट्ठी वाण, तुमन अर्जुन भी देखे!
तब बाा बोदान, हम त सेयां छा,
हमून नी देखे, हमून नी देखे!
औंदा मनखी, पूछदी दुरपता,
जाँदा पंछियो, तुमन अर्जुन भी देखे!
रोंदी छ बरांदी तब, दुरपता राणी,
जिकुड़ी पर जना, चीरा धरी होन।
तीन दिन होईन, वीन खाणो नी खायो,
लाणो नी लायो।
तब औंद अर्जुन को, सगुनी कागा-
तेरो स्वामी दुरपती, ज्यूंदो छ जागदो।
नागलोक जायूं छ, वासुदन्ता का पास!
तब दुरपता को साँस ऐगे,
पर बासुदन्ता को, नौ सुणीक वा
फूल-सी मुरझैगी, डाली-सी अलसैगी।
तबरेक रमकदो छमकदो-
अर्जुन घर ऐगे।

शब्दार्थ
<references/>