भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाता-रिश्ता-2 / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 13 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> तो यों...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

     तो यों, इस लिए
     यहीं अकेले में
     बिना शब्दों के
     मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो
     मौन में लय हो जाने दो :
     यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
     केवल मरु का रेत-लदा झोंका
     डँसता है और फिर एक किरकिरी
     हँसी हँसता बढ़ जाता है-
     यहीं जहाँ रवि तपता है
     और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
     यवनिका में झपता है-
     यहाँ जहाँ सब कुछ दीखता है
     पर सब रंग सोख लिये गये हैं
     इस लिए हर कोई सीखता है कि
     सब कुछ अन्धा है।
     जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूँजता है
     और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
     लड़खड़ा कर झड़ जाता है।