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"नारी / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर

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अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा<br>
 
अर्ध अजित-जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति-पिपासा,<br>
 
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,<br>
 
अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा।<br>
 
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तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,<br>
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अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा
इस पार कभी, उस पार कभी।<br>
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अर्ध अजित-जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति-पिपासा,
तुम कभी अश्रु बनकर आँखों से टूट पड़े,<br>
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आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
तुम कभी गीत बनकर साँसों से फूट पड़े,<br>
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अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा।
तुम टूटे-जुड़े हजार बार<br>
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इस पार कभी, उस पार कभी.....
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तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,<br>
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तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,<br>
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इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,<br>
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तुम कभी अश्रु बनकर आँखों से टूट पड़े,
इस पार कभी, उस पार कभी।<br>
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तुम कभी गीत बनकर साँसों से फूट पड़े,
फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,<br>
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तुम टूटे-जुड़े हजार बार
शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,<br>
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इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,<br>
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तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,
इस पार कभी, उस पार कभी।<br>
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किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,
तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,<br>
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तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,
धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,<br>
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इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,<br>
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फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,
इस पार कभी, उस पार कभी।<br>
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शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,
तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,<br>
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तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,
जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,<br>
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इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,<br>
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तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,
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धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,
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तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,
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इस पार कभी, उस पार कभी।
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तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,
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जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,
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तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
 
इस पार कभी, उस पार कभी।
 
इस पार कभी, उस पार कभी।
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21:00, 19 जुलाई 2018 के समय का अवतरण



अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा
अर्ध अजित-जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति-पिपासा,
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा।
इस पार कभी, उस पार कभी.....

तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम कभी अश्रु बनकर आँखों से टूट पड़े,
तुम कभी गीत बनकर साँसों से फूट पड़े,
तुम टूटे-जुड़े हजार बार
इस पार कभी, उस पार कभी।
तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,
किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,
तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,
तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,
धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,
तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,
तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।