Last modified on 28 फ़रवरी 2008, at 09:31

नाव बांध कर / केदारनाथ अग्रवाल


नाव बांध कर

चला गया है जीवन का मल्लाह;

चढ़ी नदी से

उमड़ रही है बंधी नाव की आह !


भूमि छोड़ कर

चला गया है सूरज का आलोक;

अन्धकार से उमड़ रहा है

खिन्न भूमि का शोक !