भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नासदीय सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 129 / 3 / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:22, 22 मई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओह घरी
इ अन्‍हार जइसन ब्रह्मांड
अन्‍हारे में डूबल रहे
चारो ओर
अछोर जले जल रहे
ओह अछोर खालीपन में
बस उहे एगो तत्‍व
बरहम मौजूद रहन॥3॥

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥3॥