Last modified on 13 दिसम्बर 2009, at 23:19

ना-समझ थी / चंद्र रेखा ढडवाल


ना-समझ थी
जब मीठा चटाते-चटाते
मादाख़ोर चाट गया उसी को
सात पर्दों में छुपाकर / दबाकर
रखा माँ ने
शब्द की / अर्थ की
एक किरण भर रोशनी भी नहीं

सब खिड़कियाँ दरवाज़े
झरोखे तक बंद
कि न जाए
उसकी गंध बाहर

बरसों बीते
पर मुँह की सफ़ेदी न गई
बरबस थोप /लपेटकर
सुर्ख़ी- लाली
घाघरे-चोली में
उसे विदा करते
घर के चेहरे पर
पसर गया दर्प
गंगा नहा आने का

मनहूसियत से मुक्त होते ही
खुलने लगे
झरोखे / खिड़कियाँ / दरवाज़े
आने लगी मौसमों की ख़ुशबू
जिसके लिए तरसती रही वहाँ बैठी वह
कि उसके पहुँचने से पहले पहुँव्ह गई थी
वहाँ उसकी ख़बर

उन्होंने की
उसने भी की कोशिश
पर मरी नहीं
लौट आई
मायके की दहलीज़
मिलने के उपक्रम में
धकिया गई ऐसे
कि सिर के बल गिरी
तत्काल सहेज लिया
तत्पर घर ने
पूरी श्रद्धा के साथ किया
अंतिम संस्कार
श्राद्ध भी
करते रहे अनवरत.