ना तो मैं हूँ, ना ही मेरी परछाई है ।
मुझमें कैसी काली रात उतर आई है ।
चाँद, सितारे डर कर जाने कहाँ छिप गए,
घर की छत पर मैं हूँ मेरी तन्हाई है ।
सन्नाटों के ख़ाली कुए क़ैद हैं मुझमें,
बाहर चारों और मेरे अन्धी खाई है ।
पीछे-पीछे सच मेरा चलता है पैदल,
आगे-आगे दौड़ने वाली रुसवाई है ।
बदन के अन्दर बेलिबास मेरा ज़मीर है,
बदन के बाहर पूरा शहर तमाशाई है ।
ढलने को है उम्मीदों की शाम भी अब तो,
औ' कम होती जाती मेरी बीनाई है ।
नापेगा कैसे कोई मेरे वजूद को,
ऊँचाई से ज़्यादा मेरी गहराई है ।