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निंदिया बहुत ललन को प्यारी / विद्यावती कोकिल

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अपने प्राणों को दीपक कर, जीवन को कर बाती,
सिरहाने बैठी-बैठी हूं कब से उसे जगाती,
भभक उठी है छाती मेरी, आंखें हैं कुछ भारी।
निंदिया बहुत ललन को प्यारी।
कभी हंसाने से न हंसा वह ऐसा असमझ भोरा,
सोते-सोते हंसा नींद में, मेरा कौन निहोरा,
प्रतिदिन मन मारे रह जाती कितनी उत्सुकता री।
निंदिया बहुत ललन को प्यारी।
कौन कथा कहकर न जाने परियां उसे हंसातीं,
मेरी कथा लड़खड़ाती-सी चुंबन में रह जाती।
मैं रह जाती हूं कहने को मन ही मन कुछ हारी।
निंदिया बहुत ललन को प्यारी।