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निःशब्द हूँ मैं / कौशल किशोर

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एक दुख कम होता नहीं
कि दूसरा आ धमकता है

चाहता हूँ
कोई अच्छी खबर मिले
इंतजार में आंखें पथरा गयी हैं
तभी खबर आती है
कि रात के अंधेरे में वे चली गयीं

उन्हें चांद-तारों से मोहब्बत थी
बच्चे तो जिगर के टुकड़े थे
जितना प्यार था, युद्ध से उतनी ही घृणा
वे चिड़िया की तरह उड़ती
धरती से आसमान और अन्तरिक्ष से धरती
ऐसी ही उड़ान थी
कल्पना में जीवन था, जीवन में कल्पना थी
वह चाहती थीं एक दुनिया
जो हरी-भरी हो और चमकीली भी
जहाँ हरियाली हो, रोशनी हो और वह हो सब के लिए

महामारी आई
तो सामने पीठ नहीं सीना था
योद्धा की तरह लड़ीं, खूब लड़ीं, लड़ती रहीं
वह रात थी, आसमान में चांद था
और इधर दीये की लौ टिमटिमा रही थी
वे दूर जा रही थीं
हाथ छूट रहा था, साथ छूट रहा था
हम देखते रहे
उन्हें जाते नम आंखों से बस देखते रहे

यह जाना, क्या महज जाना है
यह तो बज्राघात है
दुख की एक और परत
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, किससे कहूँ
सोचता हूँ क्या होगा उन कविताओं का जो कल्पना में थीं
जिन्हें जीवन में आना था
और उनका भी क्या होगा जो अधूरी हैं

शब्दों ने भावों को अभिव्यक्त करना छोड़ दिया है
वे सारे शब्द जो हमारी संवेदना को व्यक्त करते
थक से गये हैं
आखिर कितना चलते और कब तक चलते

यह शब्दों की थकान है
कि निशब्द हूँ मैं।