भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निकला जो चिलमनों से वो चेहरा आफ़ताबी / 'फ़य्याज़' फ़ारुक़ी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 29 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='फ़य्याज़' फ़ारुक़ी |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निकला जो चिलमनों से वो चेहरा आफ़ताबी
इक आन में उफ़ुक का आँचल हुआ गुलाबी

रूख़ से नक़ाब उन के सरका हुआ है कुछ कुछ
दीवाना कर न डाले ये नीब-बे-हिजाबी

सौ जाम का नशा है साक़ी तेरी नज़र में
कहते हैं बादा-कश भी मुझ को तेरा शराबी

बेकार लग रही हैं दुनिया की सब किताबें
देखी है जब से मैं ने सूरत तेरी किताबी

मुरझाए फूल हैं कलियों ने सर झुकाए
गुलशन में इक सितम है ये तेरी बे-नक़ाबी

कब चैन से रहा है ये फ़िक्र का परिंदा
‘फ़य्याज़’ की है फ़ितरत किस दजा इजि़्तराबी