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निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या / फ़िराक़ गोरखपुरी
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लेखक: फिराक़ गोरखपुरी
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निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या ।
हिजाब अहले मुहब्बत को आए हैं क्या-क्या ।।
जहाँ में थी बस इक अफ़वाह तेरे जलवों की,
चराग़े दैरो-हरम झिलमिलाए है क्या-क्या ।
कहीं चराग़, कहीं गुल, कहीं दिल बरबाद,
ख़ेरामें नाज़ ने कितने उठाए हैं क्या-क्या ।
पयामें हुस्न, पयामे जुनूँ, पयामें फ़ना,
तेरी निगाह ने फसाने सुनाए हैं क्या-क्या ।
‘फिराक़’ राहे वफ़ा में सबक रवी तेरी,
बड़े बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या-क्या ।