Last modified on 28 फ़रवरी 2020, at 22:33

निचोड़ डाला हर एक कतरा / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

निचोड़ डाला हर एक कतरा,
सभ्यता के निर्वस्त्र तन से।
हो रही कलियाँ सशंकित,
तेरी उंगली के छुअन से।
क्यों कंठ तेरे सूखे रहे,
स्तनों को नोच कर।
क्या लगा है हाथ तेरे,
सृष्टि को झकझोर कर।
ना जाने किस नींद की कामना में,
तुम किसे लोरी सुनाते रहे।
तुम मनुष्य हो, निर्बलों की
कसमसाती देह पर रागिनी गाते रहे।