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निरन्‍तर / सुनील गज्जाणी

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भीड़ फ्रेम से बाहर निकलती
खचाखच भरे मैदान में
रावण दहन देखते
मूर्तिवत लोग
रावण, मेघनाद, कुंभकरण के पुतले जलते
निरन्‍तर सम्‍पूर्ण वातावरण
सभी अपनी एक ही दिशा में जडवत्‌
शान्‍ति ........ एक दम शान्‍ति
मैं समाचार पत्र में चित्र देखता
तन्‍मयता से
मैं अखबार के पृष्‍ठ बदलता
सुर्खियां देख आश्‍चर्य हुआ
एक युवक ने नश्‍ो में वृद्धा का मान हरण किया
लिफ्‍ट के बहाने कार वाले को लूटा
नौकर ने अपने मालिक को छुरा घौंपा
किशोरों ने घर में डाका डाला
मैं असमंजस में
फूल से रिश्‍ते
शूल बनते
पावन रिश्‍ते
जाने अनजाने खिरते
मैं रावण दहन का पर्याय समाचार पत्र में ढूंढता।
कुछ दिनों बाद
राह पे एक दृश्‍य देखा
वृद्ध पिता
अपनी नव यौवना बिटिया के साथ
करतब दिखाता
तमाशबीन तन्‍मयता से देखते
कुछ टकटकी से देखते
फटे कपड़ों में झांकते बिटिया के
सुडौल सुन्‍दर तन को
तालियां बजाते
होठों पे कुछ कुटिल मुस्‍कान लिए
बिटिया के सराहनीय करतब पे
पैसे फैंकते
अपना दामन फैलाए वो
तमाशबीनों के पास जाती
वे कुछ लोग नोट उसका हाथ सहला
सहला कर थमाते
जाने क्‍या-क्‍या अभद्र कह उसके
कानों में बुदबुदाते
बिटिया फीकी सी मुस्‍कान लिए
आगे चल देती
वे अभद्र शब्‍द उसकी बधिरता
उसके मन मस्‍तिष्‍क तक पहुंचा नहीं पाते
वृद्ध पिता के घर के चूल्‍हे का
सन्‍तुलन बिटिया के ही रस्‍सी पे
पूरे सन्‍तुलन पे टिका
मैं सोचता
शायद उन लोगो में ही वे तीन
आत्‍माएं कही विद्यमान है
उनके सद्‌गुणों को छोड़
जाने किस होड़ में
जाने किस दौड़ में
अपना जीवन गिरवी रख
अन्‍ध्‍ो कुंए में जाने क्‍या ढूंढ रहे है वे लोग
निरन्‍तर
हां निरन्‍तर
सिर्फ सृष्‍टि का चलना
बस थम सा रहा
आदमी बनना
शिखरों पे बैठी हिम का निरन्‍तर रहना
सेहरा का जंगल बनना
निरन्‍तर है
यथा, अनवरत ...... अनवरत .......... और अनवरत
सृष्‍टि पूर्व की भांति निरन्‍तर
इन्‍सान इन्‍सानियत खोता निरन्‍तर।