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निर्झर / पुरुषार्थवती देवी

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सदा दृग-जल से रोता विश्व, हृदय तुम देते अपना चीर।
कहाँ पाओगे प्रेम-अनन्त, बहाकर अपना मानस-नीर॥
खींचकर स्वर-लहरी के बीच, वेदना के सूने उद्गार।
निरन्तर देते हो सन्देश, नहीं पाते हो फिर भी प्यार॥
हृदय कतरा है हाहाकार, किन्तु रहता है मुख अम्लान।
प्रेम-पथ करते हो निष्कंट, थामकर आँखों का तूफान॥
व्यथित मानस-पल्लव के बीच, जभी झिलमिल करती है चाह।
खींचकर उच्छ्वासों की आड़, रोक लेते थे धीमी आह॥
साधना में प्राणांे को छोड़, कभी पाओगे स्नेह-अनन्य।
मौन जब निकलेगा संगीत, मुग्ध वे घड़ियाँ हाेंंगी धन्य॥