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निर्धन कु शोषण किलै / जितेंद्र मोहन पंत

गरीब, अमीर कि भारत म या असमानता किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च। 

कैकी बिरल़ी भी नौणी छ्वड़दी छी,
 क्वी रुटि क गफा कु तरसदा ​छिन, 
 कैका कुकर हलवा खांदा छिन,
 कैका बच्चा भूखा सींदा छिन।
 देश का धन थै बंटणा म यो भेदभाव किलै की च,
 निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

जैका भैंसा बंड्या कै छीन, 
वो दूध की बूंद नि पे सकदू, 
जो सर्या दुन्या कु पेट पल़द,
वो पुटगु भोरी नि खा सकदू। 
काम कन वलौं खुणै, अपणी चीज कु अभाव किलैं की च?
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।। 

क्वी बैठि . बैठि कै राज कैरी
शासन अपणु चलाणा छीं, 
गरीब का खून थै चुसणा छीं,
वेका पसीना से नहाणा छीं। 
अमीर गरीब का जीवन से ख्यल्णु रैंदु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

 क्वी धन का ऊंचा डांडों म,
 घुमदा ही रैंदा जाणू च,
क्वी कभि ऐथर नि बढ़ी पांदू,
सदनि ही लमडणु रैंदु च। 
आवा, ये गरीब थै थामा, यो गिरणु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।। 

आवा जवान भैं बंदो,
ईं खाई थै मिटा द्ययूंला,
गरीबै मदद कैरि की
वैथे ऐथर सरकाई द्ययूंला। 
आज तक देखी कैकी भि, दुन्या सियीं राई किलैं की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।। 

( यह कविता 1979 में लिखी गयी थी। )