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निर्मलमना ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1
विश्वास छला
ईर्ष्या अनल जगी
सब ही जला
फूटी आँखों न भाया
सच्चा प्यार किसी का।
2
जलाने चले
औरों के घर- द्वार
हजारों बार
जीभर वे मुस्काए
विद्रूप हुआ रूप।
4
निर्मलमना !
गोमुख के जल-सा
पावन प्यार
समझेंगे वे कैसे
जो नालियों में डूबे?
-०-