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निर्विकल्प खामोशियां / योगेंद्र कृष्णा

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हम अकसर ही
शहर की भीड़
और कोलाहल को चीर कर
निकल आते हैं
अपने-अपने एकांत में

बीत चुके समय और शहर
की सीढ़ियों से नीचे
उतरते-ठिठकते हुए

सूफी संत पीर नाफ़ा शाह
की मज़ार तक जातीं ये सीढ़ियां
समय की परतों के साथ
हौले से हमें भी उघाड़ती हैं

और गर्म दोपहर की
निर्विकल्प खामोशियों
के बीच
हम और हमारा एकांत*
समय के खंडहर से
ढूंढ़ लाते हैं जैसे
खोई दुनिया का कोई सुराग…

( * मुंगेर किले के अंदर पीर नाफ़ा शाह की मज़ार पर
जब कवि एकांत श्रीवास्तव भी हमारे साथ थे : 4 अप्रैल, 2009 )