Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 01:04

निस्बत / आलोक श्रीवास्तव-१

दिल को
कुछ चेहरों से
ऎसी निस्बत हो जाती है
जब भी आँखें मूंदो
वो ही शक्ल नज़र आती है
कोई कहीं इक बार मिला था लेकिन
ज़हनो-दिल के बीच
अभी भी!
उजली-उजली-सी एक मूरत
चलते-फिरते मिल जाती है
नाम-पता पूछो
तो
पाकीज़ा आँखों से कहती है--
निस्बत ।