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नि:शब्द लोग / कविता मालवीय

कुनमुनाते हुए
सिगरेट के अधजले टुकड़े,
गिलास की तलहटी में
अनमने से चंद कतरे मय के,
कुर्सी पर ठाठ से पसरी हुई
कल की ख़ामोशी,
कुशन की सिलवट में
गिर कर अटका
वोह हसीन लम्हा ,
पंखे की आवाज़ में
मूंह छिपाती हाथों की जुम्बिश,
पन्ने पर फडफडाते ज़िंदा अलफ़ाज़,
घड़ी से टपका मेज़ पर फैला रात का नूर,
सुबह सामान उठाते हुए
आया बुदबुदाई
उफ़ आजकल ये बेजान चीज़ें
कितना बोलती हैं