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नींद आती ही नहीं धड़के की इक आवाज़ से / भारतेंदु हरिश्चंद्र

नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
तंग आया हूँ मैं इस पुर-सोज़ दिल के साज़ से

दिल पिसा जाता है उन की चाल के अंदाज़ से
हाथ में दामन लिए आते हैं वो किस नाज़ से

सैकड़ों मुर्दे जलाए हो मसीहा नाज़ से
मौत शर्मिंदा हुई क्या क्या तिरे एजाज़ से

बाग़बाँ कुंज-ए-क़फ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
अब खुले पर भी तो मैं वाक़िफ़ नहीं परवाज़ से

क़ब्र में राहत से सोए थे न था महशर का ख़ौफ़
बाज़ आए ऐ मसीहा हम तिरे एजाज़ से

वाए ग़फ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
चौंक पड़ता हूँ शिकस्त-ए-होश की आवाज़ से

नाज़ मअशूक़ाना से ख़ाली नहीं है कोई बात
मेरे लाशे को उठाए हैं वो किस अंदाज़ से

क़ब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका 'रसा'
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से