भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद उड़ गई है / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:23, 16 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नींद उड़ गई है!

उगते अस्त हुआ रवि जिस दिन
आँधी उठी, उड़े सुख के तृण;
सिमट गए सब दृश्य; किस क़दर
दृशि सिकुड़ गई है!

बाहर कोई क्या पहचाने!
घायल की घायल ही जाने;
मृग से उसकी नाभि, सर्प से
मणि बिछुड़ गई है!

भीतर जैसी है यह माटी,
कैसे निकसे, ऐसी काँटी?
वज्रहृदय में गड़कर कोई
याद मुड़ गई है!