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नींद और अख़बार / सोनी पाण्डेय

Kavita Kosh से
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इन दिनों रात भर नींद नहीं आती
जैसे सारी दुनिया का ग़म पी लिया हो आँखों ने
मोटी हो चुकी पलकें सुबह चुगली कर देतीं हैं
और पूछा जाता हैं,..
सोई क्यों नहीं?
रोई थी क्या?
कुछ प्रश्नवाचक आँखें देख कर चुप रह जाती हैं
जानती हैं शायद नींद के ग़ुम होने का कारण
अलस्सुबह खोलते दरवाजा
उठाते हुए अख़बार
हाथ कांपता है
हर पन्ना स्याह धब्बों से भरा
कुछ चित्कारती औरतों की तस्वीरें
लहूलुहान लाशें
लाशों पर रेंगती दुनिया
एक दम से इतनी स्याह हो जाती
की स्याही भी पड़ जाए भ्रम में
कौन कितना स्याह का अन्तर्द्वन्द समेटे
अख़बार खोलती हूँ...
पहले पन्ने पर बड़ी सी फोटो
सबका विकास और सबका साथ का दावा
गली का उदास आखिरी आदमी
कुत्ते से कहता हुआ जा रहा है
तुम चुप रहो मैं भोंकता हूँ
कि कल ही लुटी है मेरी आबरु
चलती कार में......
मैं डरने लगी हूँ अख़बार से
जबकि सबसे अधिक प्यार था
इतवारी अख़बार से
किस्से...कहानियों,कविताओं का पन्ना
कुछ रोचक जानकारियों का पन्ना
जिसके लिए चोर बनी थी सबसे सयानी लड़की
उन दिनों
जब आँखों में समाने नाचने लगीं थीं कुछ स्याह औरतें
कुलबुलाती औरतों के किस्से सुनाते माँ से
जब हँसती थी लड़की
माँ झट काले कपड़े में
लोहबान और लौंग बाँध
बाँधती हाथ में कस कर नज़र
डरती मरी हुई अभिशप्त औरतों से
कि स्याह पहलू था उनके हिस्से इतिहास का
कोई....डायन,कुलडहनी...पूतखौकी
अभागी थी....
और छपतीं थीं मोटे काले अक्षरों में अख़बार में
दरअसल सख़्त मनाही थी पढ़ने की
इतवारी अख़बार का विशेष पन्ना
और मैं दिवानी थी उसकी
जितनी मीरा कृष्ण की...
एक कविता जनमती थी पढ़ कर
इतवारी पन्ना विशेष
और आज पके घाव सा टभकता इतवार
देता है सूचना
चार औरतों संग किया दुश्कर्म
हाईवे पर.....बस में....ट्रेन में
स्कूल और अॉफीस भी सुरक्षित नहीं
क्या कहूँ,मेरा घर भी सुरक्षित नहीं
इस लिए इन दिनों रात भर नींद नहीं आती
भय खाती हूँ अख़बार से...