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नींद में जंगल / सुधांशु उपाध्याय

तुम्हारी आँख में अक्सर
लबालब ताल मिलते हैं
बहुत पहुँचे फ़क़ीरों से
तुम्हारे ख़याल मिलते हैं।

पहनकर धूप का चश्मा
तुम्हें नदियाँ बुलाती हैं
बहुत बेचैन दिन बीते
बुझी शामें बताती हैं
कहीं पानी, कहीं मछली
कहीं पर जाल मिलते हैं।

ये बादल टूट कर बरसें
तो कोई बात बनती है
हमें दिन तोड़ देते हैं
तो कोई रात बनती है
कहीं पर हाथ हिलते हैं
कहीं रूमाल मिलते हैं।

भटक कर लौट आए हैं
उसी अंधे कुएँ में हम
हुई निर्वस्त्र पांचाली
पराजित हैं जुए में हम
हमारी नींद में जंगल
कभी बस्तर
कभी संथाल मिलते हैं।