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नींद / समीर बरन नन्दी

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जाने क्यों काली-काली कोयलों को
आजकल नींद नहीं आती --
आधी-आधी रात कर्कश स्वर में
समूह में चिल्लाती हैं
एक बस्ती से दूसरी बस्ती !

जैसे उनके बाप के पेड़ कट गए हो
पंचम स्वर बासी पड़ गया है
या एक-आध बिखरे पेड़ डराने लगे है
या हमारे दौर में चाँद सर पीट रहा है ।

सो नहीं पातीं दिन भर कलह में
अतृप्त चाह छिपकर रहने की जददोजहद
प्रतिशोध भरा कंठ हो गया है
जाने क्यों मुझे भी नींद नहीं आती ।