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नीम से... / मनोज श्रीवास्तव

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नीम से...

अली!
कब तक रखोगी व्रत
वसंत के वियोग में?
पतझड़ की बहन बन गई हो
अब, उतार ही डालो
यह पीत वसन

देह पर फिर कराओ मसाज़
मानसून के हाथों
संकुचाओ मत
लजाओ मत
उसके मसाज से
तुम्हारी सभी सखियों की देह
गदरा जाती है

अली!
सबसे छुपा लो
पर, नहीं छुपा पाओगी
टुकुर-टुकुर ताकते
नभ से
अपने मन के गहरे में
सिसकते नेह को
उसकी मीठी फुहार से
तुम भींज गई हो
उतनी गहराई तक
जहां तक
तुम्हारी आत्मा भी
नहीं पहुंची है

अब करा ही डालो लगन
नटखट मानसून से
तुम्हारा होकर
वह सभी का हो जाएगा
तुम्हारे संगी-साथी भी बड़े फायदे में होंगे
झुराई दूब हर पल
हरहरा- फड़फड़ा कर
हवा के होठों पर बाँसुरी बजाएगी
कोमल आम्रवट त्याज
कूजेगी तुम्हारी गबरू बांहों में.