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नीलम घाटी की पुकार / प्रतिभा सक्सेना

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[सृष्टि के वरदान सी हरी-भरी धरती, जिसके स्नेह भरे आँचल में चेतना का अजस्र प्रवाह शत-शत रूपों में विकास पाता है.जिसकी चरम परिणति है मनुष्य- भावना, बुद्धि और कर्म का अनूठा समंजन! लेकिन कैसी विडंबना है आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना!

अहंकार में मत्त भस्मासुर-सा वह घात लगाए बैठा है, जिस पर दाँव चले जला कर राख कर सदे.उसके सर्वनाशी नृत्य का पहला आघात झेला अमिताभ बुद्ध की करुणा से सिंचित जापान की धरती ने.हिरोशिमा और नागासाकी पर वीभत्स मृत्यु-वर्षा की स्मृति आज भी दिल दहला देती है.

उसी भाव-भूमि पर आधारित,मानव निर्मित त्रासदी को झेलनेवाले, शान्ति के दूत के रूप में जाने जाते कपोत- परिवार की कथा है यह. घटनाक्रम यों है -

देवदारु से ढँके पर्वतों के बीच एक फूलोंवाली घाटी थी, गगन में उड़ता श्वेत कपोतों का एक,जोड़ाअपनी प्यास बुझाने वहाँ उतरा और घाटी की रमणीयता पर मुग्ध हो वहाँ अपना नीड़ बना लिया.उनका छोटा-सा संसार शिशुओं की किलकारी से गूंज उठा.

तभी एक दिन आकाश में विचरती कपोती को लगा घाटी का वातावरम भयावह हो उठा है.घबराई सी वह अकेली ही लौट पड़ी.नीड़ का कहीं नामोनिशान नहीं था. रोती-बिलखती वह अपने शिशुओँ को ढूँढती रही- टेरती रही.

आकाश से मौत फिर उतरी.बमों की वर्षा का एक और दौर-भयानक, वीभत्स और सर्वग्रासी! निरीह कपोती चक्कर खाती हुई अपने लुँज-पुँज शिशुओं पर जा गिरी.एकाकी रह गया मरणान्तक यंत्रणा झेलता वह अभिशप्त कपोत!

वह आज भी आकाशों के चक्कर काटता फिर रहा है, टेर रहा है -जागो,चेत जाओ.यही कहीं तुम्हारे साथ भी न हो! इसी का निरूपण है यह नृत्य-नाटिका’नीलम घाटी की पुकार' - ]



लाख भुलाऊँ नहीं भूलती मित्रों, एक कहानी,
मन को थोड़ा हलका कर लूँ कह कर उसे ज़ुबानी.
पहले मेरे साथ ज़रा-सा दूर इधर आ जाओ,
नेह भरा वसुधा का आँचल कुछ पल यहाँ बिताओ.



देवदारु वाला वह पर्वत, नीचे फैली घाटी,
हरे-भरे ये वृक्ष लताएँ, उर्वर-उर्वर माटी.
वह देखो पर्वत से झरता छल-छल करता झरना,
कलकल छलछल कोमल-कोमल चंचल शिशु सा झरना.
धरती-माँ का उमग-उमग शिशु को बाहों में भरना.
वनपाँखी का कलरव गूँजे, कुह-कुह ट्वीटी क्रींक्रीं,
गाए रम्य वनाली फूली, झुक-झुक जाए डाली.



मुक्त गगन में श्वेत कपोतों का दल पंख पसारे,
पूरव से पश्चिम तक उड़ता प्रतिदिन साँझ-सकारे!
एक पँखेरू ने धरती की ओर दृष्टि जब मोड़ी,
रम्य धरा पर उतर पड़ी तब वह कपोत की जोड़ी.
जल पीकर संतुष्ट और यौवन के मद में माती,
नीलमवाली घाटी में वह घूमी पंख फुलाती.
कपोती ने कपोत से कहा -
यह रमणीय वनाली.
ऊँचा-ऊँचा पर्वत फैला, घाटी फूलोंवाली.



'सखे,इस बरस यहीं नीड़ रच अपना,
साकार करें हम मधुर प्रेम का सपना!’
प्रेमी कपोत क्यों बात प्रिया की टाले
सुख में विभोर वे चोंच चोंच में डाले.
झरने से थोड़ा हट कर नीड़ बनाया,
कोमल काँसों रेशों से सुखद बनाया.
दिन-दिन भर दोनों घाटी पर पर्वत पर,
वृक्षों पर नभ में उड़ते फिरते जी भर.
चक्कर खाते झुक- झूम प्यार बरसाते,
फिर पंख पसारे उमग-उमग हरषाते.
संध्या होती तो लौट नीड़ में दोनों
मीठे सपनों से भरी नींद सो जाते!

(फिर घोंसले में कपोत-शिशुओं की किलकारी गूँजी)

बारी-बारी से दोनों दाना लाते,
अमरित सा पानी लाकर प्यास बुझाते,
पंखों से अपने शिशुओँ को छा लेते
गूँ-गुटुर-गुटुरगूँ लोरी भी गा लेते.
फिर बच्चे बाहर आ बैठे शाखों पर,
नर खिला रहा था उनको फुदक-फुदक कर.
हलकी उड़ान भर लौट नीड़ में आते,
दिन बीत रहे थे यों ही हँसते-गाते.
अब फिर से वे आकाश थाहते फिरते,
लौटते नीड़ में, मंद पवन में तिरते.



फिर एक दिन क्या हुआ-
उस दिन दोनों पर्वत के पार गए थे,
आपस में होड़ लगा कर उड़ते-उड़ते,
कैसा तो होने लगा कपोती का मन,
वह लौट पड़ी थी आगे बढ़ते-बढ़ते.



कुछ लगी भयावह भायँ-भायँ सी घाटी,
तो धक्क रह गई स्नेहिल माँ ती छाती.
कुछ लगा कि जैसे रात हो गई दिन में
फिर मौत सरीखी शान्ति छा गई वन में.
आ गई नीड़ के पास पुकार लगायी,
उसको अपने प्रियतम की सुधि भी आई.



वह डाल-डाल पर घबराई सी डोली,
पत्तों-शाखों में खोज रही थी भोली.
दम घुटता-सा था और,दृष्टि धुँधलाई,
पगलाई सी वह कुछ भी समझ न पाई.
सुध-बुध बिसार वह पागल सी चीखी थी,
'मेरे बच्चे देते क्यों नहीं दिखाई? '
'तुम कहाँ छि पगए, मेरे प्यारे बच्चों?
ओ,प्राणों के आधार दुलारे बच्चों!’



दम फूल उठा लड़खड़ा गई इतने में,
फिर करने लगी पुकार आर्त से स्वर में -
'ओ,मेरे बच्चों कहाँ गए हो? आओ,
सुकुमार पंख हैं अभी दूर मत जाओ.
ओ,लाल कहाँ हो कुछ तो मुख से बोलो,
कोई तो मुझे बताओ, रे मुँह खोलो.'



चोंचें बाये वे लुंज-पुंज से हो कर,
थे पंख-रहित से पिंड पड़े धरती पर..
'मेरे छोनो.ऐसे क्यों वहाँ पड़े हो?
सब ओर निहारो, जल्दी उठो खड़े हो.'



हरियाली पीली पड़ कर मुरझाई थी,
विषगंध दिशा में, काली परछाईं थी.
सब जीव-जगत ज्यों पड़ा हुआ ठंडा हो,
स्तब्ध हवा, पर्वत जैसे नंगा हो..



फिर भीषण रव भर फटा आग का गोला,
औ' धुआँ-धुआँ सब ओर चटकता शोला.
ज्यों दिग्दिगंत तक तपती राख भरी हो
ज्यों सृष्टि समूची सहमी हो सिहरी हो!
पर जले, फफोले सा तन भान गँवाया
रुँध गई साँस, चकरी सी डोली काया.
आ गिरी कपोती मृत शिशुओं के ऊपर,
घाटी पर्वत नभ धूसर धूसर धूसर.



दूषित नभ, पानी ज़हर कि माटी बंजर.
ऋतुओं का चक्र घूमता रहता फिर भी
सदियाँ बीतीं तिनका न उगा उस भू पर!



(एक गहरी साँस, कुछ देर चुप्पी )
लौट चलो रे बंधु, कि अब यह सहन नहीं होता है,
वर्तमान में आकर भी मन सिसक-सिसक रोता है.
मिला कौन सुख उनके प्रेम-नीड़ में आग लगा कर?
चैन मिला क्या उस नन्दन-वन को श्मशान बना कर?



वह कपोत खोजता नीड़ अब भी उड़ रहा गगन में,
शान्ति-शान्ति की टेर लगाता वन में, जन में, मन में.