सुबह-सुबह
नील-कमल-ताल पर
उतर गए चीलों के झुण्ड ।
अभी-अभी नावों ने
खोले थे पाल मगर
बह निकली दक्षिणी हवाएँ
रह-रह कर भयावना
अट्टहास करती हैं
खोल रही यक्षिणी जटाएँ
रक्त–माँस–मज्जा की
ज्वलन-गन्ध उगल रहे
धूमायित ज्वाल भरे कुण्ड ।
हंसों ने पंख खोल
लम्बी की गरदनें
पंक्तिबद्ध काफ़िले उड़े
मानसरोवर-तट पर
दीर्घ मौन आ बैठा
कलरव के मेले उजड़े
प्रवचन की मुद्रा में
श्वेत बकुल आ बैठे
मस्तक पर धार कर त्रिपुण्ड ।