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न्है तू ही सुधरयौ न्हं म्हूं अ’र यो सारौ बीत बी ग्यौ / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

न्है तू ही सुधरयौ न्हं म्हूं अ’र यो सारौ बीत बी ग्यौ
जमाना ! थारी फ़कर में जमारौ बीत बी ग्यौ

कठी बी झांक ल्यो काळौ ई काळौ आवै नजर
कठी बी सुण ल्यौ यो रोळो, अंधारौ बीत बी ग्यौ

तसाया पंछी कळ्पता फ़रै छै जंगल मांय
बंध्यां छै ढोर खणौटा पे, चारौ बीत बी ग्यौ

न्हं फ़र मुळकती, मिरग - सी उछळती खेतां में
यो जाण ल्यै कै लडकपन तो थारौ बीत बी ग्यौ

कस्यां बणाऊं खळकणौ, मनाऊं टाबर नें
अठी तो सडकां छै डामर की, गारौ बीत बी ग्यौ

घणा सह्या छै जुलम, अब तो उठ रे साथिडा
बता दयां वां नें, सबर थारौ- म्हारौ बीत बी ग्यौ

’यकीन’ जागती राखौ या जोत साहित की
मिनखपणों तो चुक्यौ, भाईचरौ बीत बी ग्यौ