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न अपने बस में है रोना न हाए हँस देना / सफ़ी औरंगाबादी

न अपने बस में है रोना न हाए हँस देना
कोई रूलाए तो रोना हँसाए हँस देना

वो बातों बातों में भर आना अपनी आँखों का
वो उस का देख के सूरत को है हँस देना

किसी के ज़ुल्म हैं कुछ ऐसे बे-महल हम पर
कि जी में आता है रोने की जाए हँस देना

वो ख़ुद हँसाए तो कम-बख़्त दिल ये ज़िद्दी दिल
ये वज़आ-दारी है क्यूँ हाए-हाए हँस देना

अदूल-ए-हुकमी-ए-दर्द-ए-जिगर की अब ऐ चश्म
जो लाख बार वो उठ कर रूलाए हँस देना

कोई जो तुझ पे हँसे बर्क़-पाश आलम-ए-सोज़
तो फिर हर एक पे तू भूल जाए हँस देना

वो हम से पूछते हैं तुम हमारे आशिक़ हो
जवाब क्या है अब इस के सिवाए हँस देना

‘सफ़ी’ कहाँ की शिकायत कहाँ का ग़म गुस्सा
किसी का ऐन लड़ाई में हाए हँस देना