भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न ग़ुंचे गुल के खुलते हैं, न नरगिस की खिली कलियाँ / सौदा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न ग़ुंचे गुल के खुलते हैं, न नरगिस की खिली कलियाँ
चमन में लेके ख़मियाज़ा किसी ने अँखड़ियाँ मलियाँ

कहीं मेहताब ने देखा है उस ख़ुरशीदे-ताबाँ को
फिरे है ढूँढता हर शब जहानाबाद की गलियाँ

तबस्सुम यूँ नुमाया है, मिस्सी-आलूद होंठों पर
न हो अब्रे-सियह में इस तरह बिजली की अचपलियाँ

दिवाना हो गया ’सौदा’ तू आख़िर रेख़्ता पढ़-पढ़
न मैं कहता था ज़ालिम कि ये बातें नहीं भलियाँ