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न तैयार था कोई जाने को गाँव (तीसरा सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल


न तैयार था कोई जाने को गाँव
बड़ी मुश्क़िलों से पटी एक नाव
मुसाफ़िर न थे साथ में और भी
महज़ बड़बड़ाता  था माँझी कभी--
'नहीं आज-सा मैंने मौसम ख़राब
कभी ज़िंदगी भर में देखा ज़नाब
हुआ चाँदनी में अमावस का रंग
हवा तेज़, तूफ़ान आने का ढंग
छिपा बादलों की गुफाओं में ताज
उलट-सी रही जैसे जमना भी आज
सभी आफ़तें जान पर एक साथ
ठहर ही न पाते हैं डाँड़ों पे हाथ'
तभी जैसे बिजली की तलवार से
अँधेरा कटा एक ही वार से
कोई जलपरी स्याह लहरों पे लोट
हुई जैसे दमभर में आँखों की ओट