न दरिया है न अब कच्चे घड़े हैं
वो मंज़र हैं तो शीशों में जड़े हैं
बताया हम को पल-पल ढलती शब ने
हम अपनी उम्र से कितने बड़े हैं
उपज के मुन्तजिर रहियो कोई दम
इसी धरती में सब जौहर गड़े हैं
तुम्हीं तुम सामने आते रहे हो
हम अपने आप से कितना लड़े हैं
उसूलों को निभाने का यही हश्र
मकीं गुम है मकाँ सोये पड़े हैं